शुद्धचारित्रमयं करोति, स मुनिर्निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणं
परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधनः सदा शुद्ध इति ।
तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम् —
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरै-
रुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः ।
आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वत-
श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ताः
तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः ।
गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते ।।११५।।
परमतत्त्वगत ( – परमात्मतत्त्वके साथ सम्बन्धवाला) निश्चयप्रतिक्रमण है इसीलिये वह
तपोधन सदा शुद्ध है ।
इसीप्रकार श्री प्रवचनसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामक) टीकामें
(१५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] इसप्रकार विशिष्ट १आदरवाले पुराण पुरुषों द्वारा सेवन किया
गया, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक् - पृथक् भूमिकाओंमें व्याप्त जो चरण
( – चारित्र) उसे यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और
चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निजद्रव्यमें सर्वतः स्थिति करो ।’’
और (इस ८६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो विषयसुखसे विरक्त हैं, शुद्ध तत्त्वमें अनुरक्त हैं, तपमें लीन
जिनका चित्त है, शास्त्रसमूहमें जो २मत्त हैं, गुणरूपी मणियोंके समुदायसे युक्त हैं और सर्व
१ — आदर = सावधानी; प्रयत्न; बहुमान । २ — मत्त = मस्त; पागल; अति प्रीतिवंत; अति आनन्दित ।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-