Niyamsar (Hindi). Gatha: 87.

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मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८७।।
मुक्त्वा शल्यभावं निःशल्ये यस्तु साधुः परिणमति
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८७।।
इह हि निःशल्यभावपरिणतमहातपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्त :
निश्चयतो निःशल्यस्वरूपस्य परमात्मनस्तावद् व्यवहारनयबलेन कर्मपंकयुक्त त्वात
निदानमायामिथ्याशल्यत्रयं विद्यत इत्युपचारतः अत एव शल्यत्रयं परित्यज्य परम-
निःशल्यस्वरूपे तिष्ठति यो हि परमयोगी स निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मात
स्वरूपगतवास्तवप्रतिक्रमणमस्त्येवेति
संकल्पोंसे मुक्त हैं, वे मुक्तिसुन्दरीके वल्लभ क्यों न होंगे ? (अवश्य ही होंगे ) ११५
गाथा : ८७ अन्वयार्थ :[यः तु साधुः ] जो साधु [शल्यभावं ] शल्यभाव
[मुक्त्वा ] छोड़कर [निःशल्ये ] निःशल्यभावसे [परिणमति ] परिणमित होता है, [सः ]
वह (साधु) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
टीका :यहाँ निःशल्यभावसे परिणत महातपोधनको ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप
कहा है
प्रथम तो, निश्चयसे निःशल्यस्वरूप परमात्माको, व्यवहारनयके बलसे कर्मपंक-
युक्तपना होनेके कारण (व्यवहारनयसे कर्मरूपी कीचड़के साथ सम्बन्ध होनेके कारण)
‘उसे निदान, माया और मिथ्यात्वरूपी तीन शल्य वर्तते हैं’ ऐसा उपचारसे कहा जाता है
ऐसा होनेसे ही तीन शल्योंका परित्याग करके जो परम योगी परम निःशल्य स्वरूपमें रहता
है उसे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है, कारण कि उसे स्वरूपगत (
निज स्वरूपके
साथ सम्बन्धवाला) वास्तविक प्रतिक्रमण है ही
[अब इस ८७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं : ]
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १६५
कर शल्यका परित्याग मुनि निःशल्य जो वर्तन करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८७।।