Niyamsar (Hindi). Gatha: 88.

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(अनुष्टुभ्)
शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि
स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फु टम् ।।११६।।
(पृथ्वी)
कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान्
भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः
स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं
भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः
।।११७।।
चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८८।।
त्यक्त्वा अगुप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८८।।
[श्लोकार्थ : ] तीन शल्योंका परित्याग करके, निःशल्य परमात्मामें स्थित
रहकर, विद्वानको सदा शुद्ध आत्माको स्फु टरूपसे भाना चाहिये ११६
[श्लोकार्थ : ] हे यति ! जो (चित्त) भवभ्रमणका कारण है और बारम्बार
कामबाणकी अग्निसे दग्ध हैऐसे कषायक्लेशसे रंगे हुए चित्तको तू अत्यन्त छोड़; जो
विधिवशात् (कर्मवशताके कारण) अप्राप्त है ऐसे निर्मल स्वभावनियत सुखको तू प्रबल
संसारकी भीतीसे डरकर भज ११७
गाथा : ८८ अन्वयार्थ :[यः साधुः ] जो साधु [अगुप्तिभावं ] अगुप्तिभाव
[त्यक्त्वा ] छोड़कर, [त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [सः ] वह (साधु)
[प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
स्वभावनियत = स्वभावमें निश्चित रहा हुआ; स्वभावमें नियमसे रहा हुआ
जो साधु छोड़ अगुप्तिको त्रय - गुप्तिमें विचरण करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८८।।
१६६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-