भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः ।
भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः ।।११७।।
[श्लोकार्थ : — ] तीन शल्योंका परित्याग करके, निःशल्य परमात्मामें स्थित रहकर, विद्वानको सदा शुद्ध आत्माको स्फु टरूपसे भाना चाहिये ।११६।
[श्लोकार्थ : — ] हे यति ! जो (चित्त) भवभ्रमणका कारण है और बारम्बार कामबाणकी अग्निसे दग्ध है — ऐसे कषायक्लेशसे रंगे हुए चित्तको तू अत्यन्त छोड़; जो विधिवशात् ( – कर्मवशताके कारण) अप्राप्त है ऐसे निर्मल ❃स्वभावनियत सुखको तू प्रबल संसारकी भीतीसे डरकर भज ।११७।
गाथा : ८८ अन्वयार्थ : — [यः साधुः ] जो साधु [अगुप्तिभावं ] अगुप्तिभाव [त्यक्त्वा ] छोड़कर, [त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [सः ] वह (साधु) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है । ❃ स्वभावनियत = स्वभावमें निश्चित रहा हुआ; स्वभावमें नियमसे रहा हुआ ।