त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत् ।
यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाह्यप्रपंचरूपम्
अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति,
यस्मात् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति ।
(हरिणी)
अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम् ।
भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत् ।।११८।।
मोत्तूण अट्टरुद्दं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा ।
सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ।।८9।।
टीका : — त्रिगुप्तिगुप्तपना ( – तीन गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परम
तपोधनको निश्चयचारित्र होनेका यह कथन है ।
परम तपश्चरणरूपी सरोवरके कमलसमूहके लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-
आसन्नभव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प
- परमसमाधिलक्षणसे लक्षित अति - अपूर्व आत्माको ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय
परमसंयमी होनेसे ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं ।
[अब इस ८८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मन - वचन - कायकी विकृतिको सदा छोड़कर, भव्य मुनि
सम्यग्ज्ञानके पुंजमयी इस सहज परम गुप्तिको शुद्धात्माकी भावना सहित उत्कृष्टरूपसे भजो ।
त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनिका वह चारित्र निर्मल है ।११८।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १६७
जो आर्त रौद्र विहाय वर्त्ते धर्म-शुक्ल सुध्यानमें ।
प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेवके आख्यानमें ।।८९।।