Niyamsar (Hindi). Gatha: 89.

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त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत
यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाह्यप्रपंचरूपम्
अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति,
यस्मात
् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति
(हरिणी)
अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम्
भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत
।।११८।।
मोत्तूण अट्टरुद्दं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा
सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ।।9।।
टीका :त्रिगुप्तिगुप्तपना (तीन गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परम
तपोधनको निश्चयचारित्र होनेका यह कथन है
परम तपश्चरणरूपी सरोवरके कमलसमूहके लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-
आसन्नभव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प
- परमसमाधिलक्षणसे लक्षित अति - अपूर्व आत्माको ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय
परमसंयमी होनेसे ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं
[अब इस ८८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मन - वचन - कायकी विकृतिको सदा छोड़कर, भव्य मुनि
सम्यग्ज्ञानके पुंजमयी इस सहज परम गुप्तिको शुद्धात्माकी भावना सहित उत्कृष्टरूपसे भजो
त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनिका वह चारित्र निर्मल है ११८
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १६७
जो आर्त रौद्र विहाय वर्त्ते धर्म-शुक्ल सुध्यानमें
प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेवके आख्यानमें ।।८९।।