अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्द्वेषजनित- रौद्रध्यानं च, एतद्द्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प- विरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनार- विन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति । ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं
गाथा : ८९ अन्वयार्थ : — [यः ] जो (जीव) [आर्तरौद्रं ध्यानं ] आर्त और रौद्र ध्यान [मुक्त्वा ] छोड़कर [धर्मशुक्लं वा ] धर्म अथवा शुक्लध्यानको [ध्यायति ] ध्याता है, [सः ] वह (जीव) [जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ] जिनवरकथित सूत्रोंमें [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है ।
(१) स्वदेशके त्यागसे, द्रव्यके नाशसे, मित्रजनके विदेशगमनसे, कमनीय (इष्ट, सुन्दर) कामिनीके वियोगसे अथवा अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला जो आर्तध्यान, तथा (२) चोर - जार - शत्रुजनोंके बध - बन्धन सम्बन्धी महा द्वेषसे उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान, वे दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्षके अपरिमित सुखसे प्रतिपक्ष संसारदुःखके मूल होनेके कारण उन दोनोंको निरवशेषरूपसे (सर्वथा) छोड़कर, (३) स्वर्ग और मोक्षके निःसीम ( – अपार) सुखका मूल ऐसा जो स्वात्माश्रित निश्चय - परमधर्मध्यान, तथा (४) ध्यान और ध्येयके विविध विकल्प रहित, ❃अंतर्मुखाकार, सकल इन्द्रियोंके समूहसे अतीत ( – समस्त इन्द्रियातीत) और निर्भेद परम कला सहित ऐसा जो निश्चय - शुक्लध्यान, उन्हें ध्याकर, जो भव्यपुंडरीक ( – भव्योत्तम) परमभावकी (पारिणामिक भावकी) भावनारूपसे परिणमित हुआ है, वह निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप है — ऐसा परम जिनेन्द्रके मुखारविंदसे निकले हुए द्रव्यश्रुतमें कहा है । ❃ अंतर्मुखाकार = अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् स्वरूप है ऐसा ।