तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति ।
तथा चोक्त म् —
(अनुष्टुभ्)
‘‘निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् ।
अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ।।’’
(वसंततिलका)
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे ।
सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग-
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ।।११9।।
(वसंततिलका)
सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् ।
नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।।१२०।।
चार ध्यानोंमें प्रथम दो ध्यान हेय हैं, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा
उपादेय है ।
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यानध्येयविवर्जित (अर्थात्
ध्यान और ध्येयके विकल्पोंसे रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यानको योगी शुक्लध्यान कहते
हैं ।’’
[अब इस ८९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] प्रगटरूपसे सदाशिवमय ( – निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म-
तत्त्वमें ❃ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । ‘वह है (अर्थात् ध्यानावली आत्मामें है )’
ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्गने सतत कहा है । हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व ( – तूने नय द्वारा कहा
हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है । ११९ ।
[श्लोकार्थ : — ] सम्यग्ज्ञानका आभूषण ऐसा यह परमात्मतत्त्व समस्त
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १६९
❃ ध्यानावली = ध्यानपंक्ति; ध्यान परम्परा ।