कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १६९
तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति ।
तथा चोक्त म् —
(अनुष्टुभ्)
‘‘निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम् ।
अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ।।’’
(वसंततिलका)
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे ।
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे ।
सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग-
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ।।११9।।
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम् ।।११9।।
(वसंततिलका)
सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् ।
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात् ।
नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।।१२०।।
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता ।।१२०।।
चार ध्यानोंमें प्रथम दो ध्यान हेय हैं, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा उपादेय है ।
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यानध्येयविवर्जित (अर्थात्
ध्यान और ध्येयके विकल्पोंसे रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यानको योगी शुक्लध्यान कहते हैं ।’’
[अब इस ८९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] प्रगटरूपसे सदाशिवमय ( – निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म- तत्त्वमें ❃ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता । ‘वह है (अर्थात् ध्यानावली आत्मामें है )’ ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्गने सतत कहा है । हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व ( – तूने नय द्वारा कहा हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है । ११९ ।
[श्लोकार्थ : — ] सम्यग्ज्ञानका आभूषण ऐसा यह परमात्मतत्त्व समस्त ❃ ध्यानावली = ध्यानपंक्ति; ध्यान परम्परा ।