मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं ।
सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ।।9०।।
मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः पूर्वं जीवेन भाविताः सुचिरम् ।
सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः अभाविता भवन्ति जीवेन ।।9०।।
आसन्नानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम् ।
मिथ्यात्वाव्रतकषाययोगपरिणामास्सामान्यप्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति
‘मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं’ इति वचनात्, मिथ्याद्रष्टिगुणस्थानादिसयोगि-
गुणस्थानचरमसमयपर्यंतस्थिता इत्यर्थः ।
विकल्पसमूहोंसे सर्वतः मुक्त ( – सर्व ओरसे रहित) है । (इसप्रकार) सर्वनयसमूह सम्बन्धी
यह प्रपंच परमात्मतत्त्वमें नहीं है तो फि र वह ध्यानावली इसमें किस प्रकार उत्पन्न हुई
(अर्थात् ध्यानावली इस परमात्मतत्त्वमें कैसे हो सकती है ) सो कहो ।१२०।
गाथा : ९० अन्वयार्थ : — [मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः ] मिथ्यात्वादि भाव
[जीवेन ] जीवने [पूर्वं ] पूर्वमें [सुचिरम् ] सुचिर काल (अति दीर्घ काल) [भाविताः ]
भाये हैं; [सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः ] सम्यक्त्वादि भाव [जीवेन ] जीवने [अभाविताः भवन्ति ]
नहीं भाये हैं ।
टीका : — यह, आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके पूर्वापर ( – पहलेके और
बादके) परिणामोंके स्वरूपका कथन है ।
मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रव) हैं;
उनके तेरह भेद हैं, कारण कि ‘१मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ’ ऐसा
(शास्त्रका) वचन है; मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगीगुणस्थानके अन्तिम समय तक
प्रत्यय होते हैं — ऐसा अर्थ है ।
१७० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
१ – अर्थ : — (प्रत्ययोंके, तेरह प्रकारके भेद कहे गये हैं — ) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगकेवली-
गुणस्थानके चरम समय तकके ।
मिथ्यात्व आदिक भावकी की जीवने चिर भावना ।
सम्यक्त्व आदिक भावकी न करी कभी भी भावना ।।९०।।