अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविताः खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्य- चरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति । अस्य मिथ्याद्रष्टे- र्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत् —
निरंजन निज परमात्मतत्त्वके श्रद्धान रहित अनासन्नभव्य जीवने वास्तवमें सामान्य प्रत्ययोंको पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं किया है ऐसे उस स्वरूपशून्य बहिरात्म - जीवने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्- चारित्रको नहीं भाया है । इस मिथ्यादृष्टि जीवसे विपरीत गुणसमुदायवाला अति-आसन्नभव्य जीव होता है ।
इस (अतिनिकटभव्य) जीवको सम्यग्ज्ञानकी भावना किसप्रकारसे होती है ऐसा प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] १भवावर्तमें पहले न भायी हुई भावनाएँ (अब) मैं भाता हूँ । वे भावनाएँ (पहले) न भायी होनेसे मैं भवके अभावके लिये उन्हें भाता हूँ (कारण कि भवका अभाव तो भवभ्रमणके कारणभूत भावनाओंसे विरुद्ध प्रकारकी, पहले न भायी हुई ऐसी अपूर्व भावनाओंसे ही होता है ) ।’’
और (इस ९०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : — १ – भवावर्त = भव-आवर्त; भवका चक्र; भवका भँवरजाल; भव-परावर्त ।