Niyamsar (Hindi).

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १७१

अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविताः खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्य- चरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति अस्य मिथ्याद्रष्टे- र्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति चेत

तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(अनुष्टुभ्)
‘‘भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः
भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ।।’’
तथा हि

निरंजन निज परमात्मतत्त्वके श्रद्धान रहित अनासन्नभव्य जीवने वास्तवमें सामान्य प्रत्ययोंको पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं किया है ऐसे उस स्वरूपशून्य बहिरात्म - जीवने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्- चारित्रको नहीं भाया है इस मिथ्यादृष्टि जीवसे विपरीत गुणसमुदायवाला अति-आसन्नभव्य जीव होता है

इस (अतिनिकटभव्य) जीवको सम्यग्ज्ञानकी भावना किसप्रकारसे होती है ऐसा प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :

‘‘[श्लोकार्थ : ] भवावर्तमें पहले न भायी हुई भावनाएँ (अब) मैं भाता हूँ वे भावनाएँ (पहले) न भायी होनेसे मैं भवके अभावके लिये उन्हें भाता हूँ (कारण कि भवका अभाव तो भवभ्रमणके कारणभूत भावनाओंसे विरुद्ध प्रकारकी, पहले न भायी हुई ऐसी अपूर्व भावनाओंसे ही होता है ) ’’

और (इस ९०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : भवावर्त = भव-आवर्त; भवका चक्र; भवका भँवरजाल; भव-परावर्त