किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत् ।
न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ।।१२१।।
अत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोर्निश्चयप्रतिक्रमणं च भवति इत्युक्त म् ।
[श्लोकार्थ : — ] जो मोक्षका कुछ कथनमात्र ( – कहनेमात्र) कारण है उसे भी (अर्थात् व्यवहार - रत्नत्रयको भी) भवसागरमें डूबे हुए जीवने पहले भवभवमें ( – अनेक भवोंमें) सुना है और आचरा ( – आचरणमें लिया) है; परन्तु अरेरे ! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है उसे (अर्थात् जो सदा एक ज्ञानस्वरूप ही है ऐसे परमात्मतत्त्वको) जीवने सुना - आचरा नहीं है, नहीं है ।१२१।
गाथा : ९१ अन्वयार्थ : — [मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं ] मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको [निरवशेषेण ] निरवशेषरूपसे [त्यक्त्वा ] छोड़कर [सम्यक्त्वज्ञानचरणं ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको [यः ] जो (जीव) [भावयति ] भाता है, [सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष ( – सम्पूर्ण) स्वीकार करनेसे और मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष त्याग करनेसे परम मुमुक्षुको निश्चयप्रतिक्रमण होता है ऐसा कहा है ।