प्रतिक्रमणाभिधानेन देहत्यागो धर्मो व्यवहारेण । निश्चयेन नवार्थेषूत्तमार्थो ह्यात्मा तस्मिन् सच्चिदानंदमयकारणसमयसारस्वरूपे तिष्ठन्ति ये तपोधनास्ते नित्यमरणभीरवः, अत एव कर्मविनाशं कुर्वन्ति । तस्मादध्यात्मभाषयोक्त भेदकरणध्यानध्येयविकल्पविरहितनिरवशेषेणान्त- शुद्ध आत्मतत्त्वमें नियत ( – शुद्धात्मतत्त्वपरायण) ऐसा जो एक निजज्ञान, दूसरा श्रद्धान और फि र दूसरा चारित्र उसका आश्रय करता है । १२२ ।
गाथा : ९२ अन्वयार्थ : — [उत्तमार्थः ]ंउत्तमार्थ ( – उत्तम पदार्थ) [आत्मा ] आत्मा है; [तस्मिन् स्थिताः ] उसमें स्थित [मुनिवराः ] मुनिवर [कर्म घ्नन्ति ] कर्मका घात करते हैं । [तस्मात् तु ] इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [उत्तमार्थस्य ] उत्तमार्थका [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमणका स्वरूप कहा है ।
जिनेश्वरके मार्गमें मुनियोंकी सल्लेखनाके समय, ब्यालीस आचार्यों द्वारा, जिसका नाम उत्तमार्थप्रतिक्रमण है वह दिया जानेके कारण, देहत्याग व्यवहारसे धर्म है । निश्चयसे — नव अर्थोंमें उत्तम अर्थ आत्मा है; सच्चिदानन्दमय कारणसमयसारस्वरूप ऐसे उस आत्मामें जो तपोधन स्थित रहते हैं, वे तपोधन नित्य मरणभीरु हैं; इसीलिये