Niyamsar (Hindi).

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र्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम्
किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं
भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति
तथा चोक्तं समयसारे
‘‘पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो ।।’’
वे कर्मका विनाश करते हैं इसलिये अध्यात्मभाषासे, पूर्वोक्त भेदकरण रहित, ध्यान
और ध्येयके विकल्प रहित, निरवशेषरूपसे अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और
सकल इन्द्रियोंसे अगोचर निश्चय
- परमशुकलध्यान ही निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण है ऐसा
जानना
और, निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चयधर्मध्यान तथा
निश्चयशुक्लध्यानमय होनेसे अमृतकुम्भस्वरूप है; व्यवहार - उत्तमार्थप्रतिक्रमण
व्यवहारधर्मध्यानमय होनेसे विषकुम्भस्वरूप है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ : ] प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निंदा,
गर्हा और शुद्धिइन आठ प्रकारका विषकुम्भ है ’’
भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह
प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना
प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा
परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषोंका निवारण
धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना
निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें वर्तते हुए चित्तको मोड़ना
निंदा = आत्मसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना
गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना
शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १७५