र्मुखाकारसकलेन्द्रियागोचरनिश्चयपरमशुक्लध्यानमेव निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणमित्यवबोद्धव्यम् ।
किं च, निश्चयोत्तमार्थप्रतिक्रमणं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मशुक्लध्यानमयत्वादमृतकुंभस्वरूपं
भवति, व्यवहारोत्तमार्थप्रतिक्रमणं व्यवहारधर्मध्यानमयत्वाद्विषकुंभस्वरूपं भवति ।
तथा चोक्तं समयसारे —
‘‘पडिकमणं पडिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य ।
णिंदा गरहा सोही अट्ठविहो होइ विसकुंभो ।।’’
वे कर्मका विनाश करते हैं । इसलिये अध्यात्मभाषासे, पूर्वोक्त ❃भेदकरण रहित, ध्यान
और ध्येयके विकल्प रहित, निरवशेषरूपसे अंतर्मुख जिसका आकार है ऐसा और
सकल इन्द्रियोंसे अगोचर निश्चय - परमशुकलध्यान ही निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण है ऐसा
जानना ।
और, निश्चय - उत्तमार्थप्रतिक्रमण स्वात्माश्रित ऐसे निश्चयधर्मध्यान तथा
निश्चयशुक्लध्यानमय होनेसे अमृतकुम्भस्वरूप है; व्यवहार - उत्तमार्थप्रतिक्रमण
व्यवहारधर्मध्यानमय होनेसे विषकुम्भस्वरूप है ।
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०६वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[गाथार्थ : — ] १प्रतिक्रमण, २प्रतिसरण, ३परिहार, ४धारणा, ५निवृत्ति, ६निंदा,
७गर्हा और ८शुद्धि — इन आठ प्रकारका विषकुम्भ है ।’’
❃ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह ।
१ – प्रतिक्रमण = किये हुये दोषोंका निराकरण करना ।
२ – प्रतिसरण = सम्यक्त्वादि गुणोंमें प्रेरणा ।
३ – परिहार = मिथ्यात्वरागादि दोषोंका निवारण ।
४ – धारणा = पंचनमस्कारादि मंत्र, प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बन द्वारा चित्तको स्थिर करना ।
५ – निवृत्ति = बाह्य विषयकषायादि इच्छामें वर्तते हुए चित्तको मोड़ना ।
६ – निंदा = आत्मसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना ।
७ – गर्हा = गुरुसाक्षीसे दोषोंका प्रगट करना ।
८ – शुद्धि = दोष हो जाने पर प्रायश्चित लेकर विशुद्धि करना ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १७५