Niyamsar (Hindi).

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तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम्
(वसंततिलका)
‘‘यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं
तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात
तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः
किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः
।।’’
तथा हि
(मंदाक्रांता)
आत्मध्यानादपरमखिलं घोरसंसारमूलं
ध्यानध्येयप्रमुखसुतपःकल्पनामात्ररम्यम्
बुद्धवा धीमान् सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
निर्मज्जन्तं सहजपरमात्मानमेकं प्रपेदे
।।१२३।।
और इसीप्रकार श्री समयसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक)
टीकामें (१८९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] (अरे ! भाई,) जहाँ प्रतिक्रमणको ही विष कहा है,
वहाँ अप्रतिक्रमण अमृत कहाँसे होगा ? (अर्थात् नहीं हो सकता ) तो फि र मनुष्य
नीचे नीचे गिरते हुए प्रमादी क्यों होते हैं ? निष्प्रमादी होते हुए ऊँ चे-ऊँ चे क्यों नहीं
चढ़ते ?’’
और (इस ९२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] आत्मध्यानके अतिरिक्त अन्य सब घोर संसारका मूल है,
(और) ध्यान - ध्येयादिक सुतप (अर्थात् ध्यान, ध्येय आदिके विकल्पवाला शुभ तप भी)
कल्पनामात्र रम्य है; ऐसा जानकर धीमान (बुद्धिमान पुरुष) सहज परमानन्दरूपी
पीयूषके पूरमें डूबते हुए (निमग्न होते हुए) ऐसे सहज परमात्माकाएकका आश्रय
करते हैं १२३
१७६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-