स्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा सकलक्रियाकांडाडंबर- व्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्व- विषयभेदकल्पनानिरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च, स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया
गाथा : ९३ अन्वयार्थ : — [ध्याननिलीनः ] ध्यानमें लीन [साधुः ] साधु [सर्वदोषाणाम् ] सर्व दोषोंका [परित्यागं ] परित्याग [करोति ] करते हैं; [तस्मात् तु ] इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है ।
जो कोई परमजिनयोगीश्वर साधु — अति - आसन्नभव्य जीव, अध्यात्मभाषासे पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानमें लीन होता हुआ अभेदरूपमें स्थित रहता है, अथवा सकल क्रियाकांडके आडम्बर रहित और व्यवहारनयात्मक १भेदकरण तथा ध्यान-ध्येयके विकल्प रहित, समस्त इन्द्रियसमूहसे अगोचर ऐसा जो परम तत्त्व — शुद्ध अन्तःतत्त्व, तत्सम्बन्धी भेदकल्पनासे २निरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपमें स्थित रहता है, वह (साधु) १ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह । [समस्त भेदकरण — ध्यान-ध्येयके विकल्प भी —
२ निरपेक्ष = उदासीन; निःस्पृह; अपेक्षारहित । [निश्चयशुक्लध्यान शुद्ध अंतःतत्त्व सम्बन्धी भेदोंकी कल्पनासे