Niyamsar (Hindi). Gatha: 93.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परमार्थ-प्रतिक्रमण अधिकार[ १७७
झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं
तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ।।9।।
ध्याननिलीनः साधुः परित्यागं करोति सर्वदोषाणाम्
तस्मात्तु ध्यानमेव हि सर्वातिचारस्य प्रतिक्रमणम् ।।9।।
अत्र ध्यानमेकमुपादेयमित्युक्त म्
कश्चित् परमजिनयोगीश्वरः साधुः अत्यासन्नभव्यजीवः अध्यात्मभाषयोक्त -

स्वात्माश्रितनिश्चयधर्मध्याननिलीनः निर्भेदरूपेण स्थितः, अथवा सकलक्रियाकांडाडंबर- व्यवहारनयात्मकभेदकरणध्यानध्येयविकल्पनिर्मुक्त निखिलकरणग्रामागोचरपरमतत्त्वशुद्धान्तस्तत्त्व- विषयभेदकल्पनानिरपेक्षनिश्चयशुक्लध्यानस्वरूपे तिष्ठति च, स च निरवशेषेणान्तर्मुखतया

गाथा : ९३ अन्वयार्थ :[ध्याननिलीनः ] ध्यानमें लीन [साधुः ] साधु [सर्वदोषाणाम् ] सर्व दोषोंका [परित्यागं ] परित्याग [करोति ] करते हैं; [तस्मात् तु ] इसलिये [ध्यानम् एव ] ध्यान ही [हि ] वास्तवमें [सर्वातिचारस्य ] सर्व अतिचारका [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है

टीका :यहाँ (इस गाथामें), ध्यान एक उपादेय है ऐसा कहा है

जो कोई परमजिनयोगीश्वर साधुअति - आसन्नभव्य जीव, अध्यात्मभाषासे पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यानमें लीन होता हुआ अभेदरूपमें स्थित रहता है, अथवा सकल क्रियाकांडके आडम्बर रहित और व्यवहारनयात्मक भेदकरण तथा ध्यान-ध्येयके विकल्प रहित, समस्त इन्द्रियसमूहसे अगोचर ऐसा जो परम तत्त्वशुद्ध अन्तःतत्त्व, तत्सम्बन्धी भेदकल्पनासे निरपेक्ष निश्चयशुक्लध्यानस्वरूपमें स्थित रहता है, वह (साधु) १ भेदकरण = भेद करना वह; भेद डालना वह [समस्त भेदकरणध्यान-ध्येयके विकल्प भी

व्यवहारनयस्वरूप है ]

२ निरपेक्ष = उदासीन; निःस्पृह; अपेक्षारहित [निश्चयशुक्लध्यान शुद्ध अंतःतत्त्व सम्बन्धी भेदोंकी कल्पनासे

भी निरपेक्ष है ]
रे साधु करता ध्यानमें सब दोषका परिहार है
अतएव ही सर्वातिचार प्रतिक्रमण यह ध्यान है ।।९३।।