‘‘[श्लोकार्थ : — ] जो अग्राह्यको ( – ग्रहण न करने योग्यको) ग्रहण नहीं करता
तथा गृहीतको ( – ग्राह्यको, शाश्वत स्वभावको) छोड़ता नहीं है, सर्वको सर्व प्रकारसे
जानता है, वह स्वसंवेद्य (तत्त्व) मैं हूँ ।’’
और (इस ९७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] आत्मा आत्मामें निज आत्मिक गुणोंसे समृद्ध आत्माको — एक
पंचमभावको — जानता है और देखता है; उस सहज एक पंचमभावको उसने छोड़ा नहीं
ही है तथा अन्य ऐसे परभावको — कि जो वास्तवमें पौद्गलिक विकार है उसे — वह ग्रहण
नहीं ही करता ।१२९।
[श्लोकार्थ : — ] अन्य द्रव्यका १आग्रह करनेसे उत्पन्न होनेवाले इस २विग्रहको
अब छोड़कर, विशुद्ध - पूर्ण - सहजज्ञानात्मक सौख्यकी प्राप्तिके हेतु, मेरा यह निज अन्तर
(अनुष्टुभ्)
‘‘यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति ।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ।।’’
तथा हि —
(वसंततिलका)
आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढयमात्मा
जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम् ।
तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं
गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ।।१२9।।
(शार्दूलविक्रीडित)
मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचिंतामणा-
वन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम् ।
तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने ।।१३०।।
१ – आग्रह = पकड़; ग्रहण; लगे रहना वह ।
२ – विग्रह = (१) रागद्वेषादि कलह; (२) शरीर ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार[ १८७