निरावरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपि नापि मुंचति, पंचविधसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभावं नैव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरम- बोधेन निरंजनसहजज्ञानसहजद्रष्टिसहजशीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्त मपि सदामुक्तं सहजमुक्ति भामिनीसंभोगसंभवपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविध- सहजावलोकेन पश्यति च, स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति ।
तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः — करता, [सर्वं ] सर्वको [जानाति पश्यति ] जानता - देखता है, [सः अहम् ] वह मैं हूँ — [इति ] ऐसा [ज्ञानी ] ज्ञानी [चिंतयेत् ] चिंतवन करता है ।
जो कारणपरमात्मा (१) समस्त पापरूपी बहादुर शत्रुसेनाकी विजय-ध्वजाको लूटनेवाले, त्रिकाल - निरावरण, निरंजन, निज परमभावको कभी नहीं छोड़ता; (२) पंचविध ( – पाँच परावर्तनरूप) संसारकी वृद्धिके कारणभूत, १विभावपुद्गलद्रव्यके संयोगसे जनित रागादिपरभावको ग्रहण नहीं करता; और (३) निरंजन सहजज्ञान - सहजदृष्टि - सहजचारित्रादि स्वभावधर्मोंके आधार - आधेय सम्बन्धी विकल्पों रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले सौख्यके स्थानभूत — ऐसे २कारणपरमात्माको निश्चयसे निज निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उस प्रकारके सहज अवलोकन द्वारा ( – सहज निज निरावरण परमदर्शन द्वारा) देखता है; वह कारणसमयसार मैं हूँ — ऐसी सम्यग्ज्ञानियोंको सदा भावना करना चाहिये ।
इसीप्रकार श्री पूज्यपादस्वामीने (समाधितंत्रमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – रागादिपरभावकी उत्पत्तिमें पुद्गलकर्म निमित्त बनता है । २ – कारणपरमात्मा ‘स्वयं आधार है और स्वभावधर्म आधेय हैं ’ ऐसे विकल्पोंसे रहित है, सदा मुक्त है और मुक्तिसुखका आवास है ।