‘‘[श्लोकार्थ : — ] वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और
केवलसौख्यस्वभावी है । उसे जानने पर क्या नहीं जाना ? उसे देखने पर क्या नहीं देखा ?
उसका श्रवण करने पर क्या नहीं सुना ?’’
और (इस ९६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] समस्त मुनिजनोंके हृदयकमलका हंस ऐसा जो यह शाश्वत,
केवलज्ञानकी मूर्तिरूप, सकलविमल दृष्टिमय ( – सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत
आनन्दरूप, सहज परम चैतन्यशक्तिमय परमात्मा वह जयवन्त है । १२८ ।
निजभावको छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहिं ।
देखे व जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिन्तन यही ।।९७।।
गाथा : ९७ अन्वयार्थ : — [निजभावं ] जो निजभावको [न अपि मुंचति ]
नहीं छोड़ता, [कम् अपि परभावं ] किंचित् भी परभावको [न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं
(अनुष्टुभ्)
‘‘केवलज्ञानद्रक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः ।
तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं द्रष्टे द्रष्टं श्रुते श्रुतम् ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः
सकलविमलद्रष्टिः शाश्वतानंदरूपः ।
सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः ।।१२८।।
णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं ।
जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी ।।9७।।
निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि ।
जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी ।।9७।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार[ १८५