Niyamsar (Hindi). Gatha: 97.

< Previous Page   Next Page >


Page 185 of 388
PDF/HTML Page 212 of 415

 

कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार[ १८५
(अनुष्टुभ्)
‘‘केवलज्ञानद्रक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः
तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं द्रष्टे द्रष्टं श्रुते श्रुतम् ।।’’
तथा हि
(मालिनी)
जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः
सकलविमल
द्रष्टिः शाश्वतानंदरूपः
सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं
निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः
।।१२८।।
णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं
जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी ।।9।।
निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि
जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी ।।9।।

‘‘[श्लोकार्थ : ] वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्यस्वभावी है उसे जानने पर क्या नहीं जाना ? उसे देखने पर क्या नहीं देखा ? उसका श्रवण करने पर क्या नहीं सुना ?’’

और (इस ९६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :

[श्लोकार्थ : ] समस्त मुनिजनोंके हृदयकमलका हंस ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञानकी मूर्तिरूप, सकलविमल दृष्टिमय (सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत आनन्दरूप, सहज परम चैतन्यशक्तिमय परमात्मा वह जयवन्त है १२८

निजभावको छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहिं
देखे व जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिन्तन यही ।।९७।।

गाथा : ९७ अन्वयार्थ :[निजभावं ] जो निजभावको [न अपि मुंचति ] नहीं छोड़ता, [कम् अपि परभावं ] किंचित् भी परभावको [न एव गृह्णाति ] ग्रहण नहीं