शिक्षा प्रोक्ता । कथंकारम् ? साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरस- गंधवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्ति युक्त परमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति; निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम्, सहजदर्शन- स्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्ति स्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति —
गाथा : ९६ अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानस्वभावः ] केवलज्ञानस्वभावी, [केवलदर्शनस्वभावः ] केवलदर्शनस्वभावी, [सुखमयः ] सुखमय और [केवलशक्तिस्वभावः ] केवलशक्तिस्वभावी [सः अहम् ] वह मैं हूँ — [इति ] ऐसा [ज्ञानी ] ज्ञानी [चिंतयेत् ] चिंतवन करते हैं ।
समस्त बाह्य प्रपंचकी वासनासे विमुक्त, निरवशेषरूपसे अन्तर्मुख परमतत्त्वज्ञानी जीवको शिक्षा दी गई है । किसप्रकार ? इसप्रकार : — सादि-अनंत अमूर्त अतीन्द्रियस्वभाववाले शुद्धसद्भूतव्यवहारसे, शुद्ध स्पर्श - रस - गंध-वर्णके आधारभूत शुद्ध पुद्गल-परमाणुकी भाँति, जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्तियुक्त परमात्मा सो मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानीको भावना करनी चाहिये; और निश्चयसे, मैं सहजज्ञानस्वरूप हूँ, मैं सहजदर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहजचारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहजचित्शक्तिस्वरूप हूँ इसप्रकार भावना करनी चाहिये
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें ( – श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत, पद्मनन्दिपञ्चविंशतिके एकत्वसप्ततिनामक अधिकारमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —