पेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि आत्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृति- पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि ।
गाथा : ९९ अन्वयार्थ : — [ममत्वं ] मैं ममत्वको [परिवर्जयामि ] छोड़ता हूँ और [निर्ममत्वम् ] निर्ममत्वमें [उपस्थितः ] स्थित रहता हूँ; [आत्मा ] आत्मा [मे ] मेरा [आलम्बनं च ] आलम्बन है [अवशेषं च ] और शेष [विसृजामि ] मैं छोड़ता हूँ ।
सुन्दर कामिनी, १कांचन आदि समस्त परद्रव्य - गुण - पर्यायोंके प्रति ममकारको मैं छोड़ता हूँ । परमोपेक्षालक्षणसे लक्षित २निर्ममकारात्मक आत्मामें स्थित रहकर तथा आत्माका अवलम्बन लेकर, ३संसृतिरूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभावरूप परिणतिको मैं परिहरता हूँ ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें १०४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – कांचन = सुवर्ण; धन । २ – निर्ममकारात्मक = निर्ममत्वमय; निर्ममत्वस्वरूप । (निर्ममत्वका लक्षण परम उपेक्षा है ।) ३ – संसृति = संसार ।