प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः ।
स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।’’
भववनधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम् ।
प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ।।१३४।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म — ऐसे समस्त कर्मोंका निषेध किया जाने पर और इसप्रकार निष्कर्म अवस्था वर्तने पर, मुनि कहीं अशरण नहीं है; (कारण कि) जब निष्कर्म अवस्था (निवृत्ति-अवस्था) वर्तती है तब ज्ञानमें आचरण करता हुआ — रमण करता हुआ — परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियोंको शरण है; वे उस ज्ञानमें लीन होते हुए परम अमृतका स्वयं अनुभवन करते हैं — आस्वादन करते हैं ।’’
और (इस ९९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] मन - वचन - काया सम्बन्धी और समस्त इन्द्रियों सम्बन्धी इच्छाका जिसने ❃नियंत्रण किया है ऐसा मैं अब भवसागरमें उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियोंके समूहको तथा कनक और युवतीकी वांछाको अतिप्रबल - विशुद्ध - ध्यानमयी सर्व शक्तिसे छोड़ता हूँ ।१३४। ❃ नियंत्रण करना = संयमन करना; अन्कु शमें लेना ।