वैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोप-
योगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंद-
निष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुद्धोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति ।
भी वह परमात्मा सदा संनिहित ( – निकट) है; भेदविज्ञानी, परद्रव्यसे पराङ्मुख तथा पंचेन्द्रियके विस्तार रहित देहमात्रपरिग्रहवाला जो मैं उसके निश्चयप्रत्याख्यानमें — कि जो (निश्चयप्रत्याख्यान) शुभ, अशुभ, पुण्य, पाप, सुख और दुःख इन छहके सकलसंन्यासस्वरूप है (अर्थात् इन छह वस्तुओंके सम्पूर्ण त्यागस्वरूप है ) उसमें — वह आत्मा सदा आसन्न ( – निकट) विद्यमान है; सहज वैराग्यरूपी महलके शिखरका शिखामणि, स्वरूपगुप्त और पापरूपी अटवीको जलानेके लिये पावक समान जो मैं उसके शुभाशुभसंवरमें (वह परमात्मा है ), तथा अशुभोपयोगसे पराङ्मुख, शुभोपयोगके प्रति भी उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोगके सम्मुख जो मैं — परमागमरूपी पुष्परस जिसके मुखसे झरता है ऐसा पद्मप्रभ — उसके शुद्धोपयोगमें भी वह परमात्मा विद्यमान है कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है ।
इसीप्रकार एकत्वसप्ततिमें ( – श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकाके एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें ३९, ४० तथा ४१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] वही एक ( – वह चैतन्यज्योति ही एक) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है ।
[श्लोकार्थ : — ] सत्पुरुषोंको वही एक नमस्कारयोग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है ।