[श्लोकार्थ : — ] अप्रमत्त योगीको वही एक आचार है, वही एक आवश्यक
क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है ।’’
और (इस १००वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] मेरे सहज सम्यग्दर्शनमें, शुद्ध ज्ञानमें, चारित्रमें, सुकृत और
दुष्कृतरूपी कर्मद्वंद्वके संन्यासकालमें (अर्थात् प्रत्याख्यानमें), संवरमें और शुद्ध योगमें
( – शुद्धोपयोगमें) वह परमात्मा ही है (अर्थात् सम्यग्दर्शनादि सभीका आश्रय – अवलम्बन
शुद्धात्मा ही है ); मुक्तिकी प्राप्तिके लिये जगतमें अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है,
नहीं है ।१३५।
[श्लोकार्थ : — ] जो कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी निर्मल तथा अनिर्मल
दिखाई देता है, तथा कभी अनिर्मल दिखाई देता है और इससे अज्ञानीके लिये जो गहन
है, वही — कि जिसने निजज्ञानरूपी दीपक से पापतिमिरको नष्ट किया है वह (आत्मतत्त्व)
ही सत्पुरुषोंके हृदयकमलरूपी घरमें निश्चलरूपसे संस्थित है ।१३६।
(अनुष्टुभ्)
आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया ।
स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ।।’’
तथा हि —
(मालिनी)
मम सहजसुद्रष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे
सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले ।
भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे
न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः ।।१३५।।
(पृथ्वी)
क्वचिल्लसति निर्मलं क्वचन निर्मलानिर्मलं
क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् ।
तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायकं
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ।।१३६।।
१९४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-