सनिधनमूर्तिविजातीयविभावव्यंजननरनारकादिपर्यायोत्पत्तौ चासन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहार- नयादेशेन स्वयमेवोज्जीवत्येव । सर्वैर्बंधुभिः परिरक्ष्यमाणस्यापि महाबलपराक्रमस्यैकस्य जीवस्याप्रार्थितमपि स्वयमेव जायते मरणम्; एक एव परमगुरुप्रसादासादितस्वात्माश्रय-
गाथा : १०१ अन्वयार्थ : — [जीवः एकः च ] जीव अकेला [म्रियते ] मरता है [च ] और [स्वयम् एकः ] स्वयं अकेला [जीवति ] जन्मता है; [एकस्य ] अकेलेका [मरणं जायते ] मरण होता है और [एकः ] अकेला [नीरजाः ] रज रहित होता हुआ [सिध्यति ] सिद्ध होता है ।
टीका : — यहाँ ( – इस गाथामें), संसारावस्थामें और मुक्तिमें जीव निःसहाय है ऐसा कहा है ।
नित्य मरणमें (अर्थात् प्रतिसमय होनेवाले आयुकर्मके निषेकोंके क्षयमें) और उस भव सम्बन्धी मरणमें, (अन्य किसीकी) सहायताके बिना व्यवहारसे (जीव) अकेला ही मरता है; तथा सादि-सांत मूर्तिक विजातीयविभावव्यंजनपर्यायरूप नरनारकादिपर्यायोंकी उत्पत्तिमें, आसन्न - अनुपचरित - असद्भूत - व्यवहारनयके कथनसे (जीव अकेला ही) स्वयमेव जन्मता है । सर्व बन्धुजनोंसे रक्षण किया जाने पर भी, महाबलपराक्रमवाले जीवका अकेलेका ही, अनिच्छित होने पर भी, स्वयमेव मरण होता