भोक्तुं स्वयं स्वकृतकर्मफलानुबन्धम् ।
स्वाजीवनाय मिलितं विटपेटकं ते ।।’’
तथा हि — है; (जीव) अकेला ही परम गुरुके प्रसादसे प्राप्त स्वात्माश्रित निश्चयशुक्लध्यानके बलसे निज आत्माको ध्याकर रजरहित होता हुआ शीघ्र निर्वाण प्राप्त करता है ।
स्वयं संसारमें भ्रमता है तथा स्वयं संसारसे मुक्त होता है ।’’
और श्री सोमदेवपंडितदेवने (यशस्तिलकचंपूकाव्यमें दूसरे अधिकारमें एकत्वानुप्रेक्षाका वर्णन करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] स्वयं किये हुए कर्मके फलानुबन्धको स्वयं भोगनेके लिये तू अकेला जन्ममें तथा मृत्युमें प्रवेश करता है, अन्य कोई (स्त्रीपुत्रमित्रादिक) सुखदुःखके प्रकारोंमें बिलकुल सहायभूत नहीं होता; अपनी आजीविकाके लिये (मात्र अपने स्वार्थके लिये स्त्रीपुत्रमित्रादिक) ठगोंकी टोली तुझे मिली है ।’’
और (इस १०१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —