कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दुःखम् ।
देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन् ।।१३७।।
[श्लोकार्थ : — ] जीव अकेला प्रबल दुष्कृतसे जन्म और मृत्युको प्राप्त करता है; जीव अकेला सदा तीव्र मोहके कारण स्वसुखसे विमुख होता हुआ कर्मद्वंद्वजनित फलमय ( – शुभ और अशुभ कर्मके फलरूप) सुन्दर सुख और दुःखको बारम्बार भोगता है; जीव अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्वको ( – अवर्णनीय परम चैतन्यतत्त्वको) प्राप्त करके उसमें स्थित रहता है । १३७ ।
गाथा : १०२ अन्वयार्थ : — [ज्ञानदर्शनलक्षणः ] ज्ञानदर्शनलक्षणवाला [शाश्वतः ] शाश्वत [एकः ] एक [आत्मा ] आत्मा [मे ] मेरा है; [शेषाः सर्वे ] शेष सब [संयोगलक्षणाः भावाः ] संयोगलक्षणवाले भाव [मे बाह्याः ] मुझसे बाह्य हैं ।
त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होनेसे निरावरण - ज्ञानदर्शनलक्षणसे लक्षित ऐसा जो कारणपरमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवनके वृक्षोंकी जड़के आसपास क्यारियोंमें