Niyamsar (Hindi). Gatha: 102.

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[श्लोकार्थ : ] जीव अकेला प्रबल दुष्कृतसे जन्म और मृत्युको प्राप्त करता है;
जीव अकेला सदा तीव्र मोहके कारण स्वसुखसे विमुख होता हुआ कर्मद्वंद्वजनित फलमय
(
शुभ और अशुभ कर्मके फलरूप) सुन्दर सुख और दुःखको बारम्बार भोगता है; जीव
अकेला गुरु द्वारा किसी ऐसे एक तत्त्वको (अवर्णनीय परम चैतन्यतत्त्वको) प्राप्त करके
उसमें स्थित रहता है १३७
गाथा : १०२ अन्वयार्थ :[ज्ञानदर्शनलक्षणः ] ज्ञानदर्शनलक्षणवाला
[शाश्वतः ] शाश्वत [एकः ] एक [आत्मा ] आत्मा [मे ] मेरा है; [शेषाः सर्वे ] शेष
सब [संयोगलक्षणाः भावाः ] संयोगलक्षणवाले भाव [मे बाह्याः ] मुझसे बाह्य हैं
टीका :एकत्वभावनारूपसे परिणमित सम्यग्ज्ञानीके लक्षणका यह कथन है
त्रिकाल निरुपाधिक स्वभाववाला होनेसे निरावरण - ज्ञानदर्शनलक्षणसे लक्षित ऐसा जो
कारणपरमात्मा वह, समस्त संसाररूपी नन्दनवनके वृक्षोंकी जड़के आसपास क्यारियोंमें
(मंदाक्रांता)
एको याति प्रबलदुरघाज्जन्म मृत्युं च जीवः
कर्मद्वन्द्वोद्भवफलमयं चारुसौख्यं च दुःखम्
भूयो भुंक्ते स्वसुखविमुखः सन् सदा तीव्रमोहा-
देकं तत्त्वं किमपि गुरुतः प्राप्य तिष्ठत्यमुष्मिन्
।।१३७।।
एगो मे सासदो अप्पा णाणदंसणलक्खणो
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।।१०२।।
एको मे शाश्वत आत्मा ज्ञानदर्शनलक्षणः
शेषा मे बाह्या भावाः सर्वे संयोगलक्षणाः ।।१०२।।
एकत्वभावनापरिणतस्य सम्यग्ज्ञानिनो लक्षणकथनमिदम्
अखिलसंसृतिनन्दनतरुमूलालवालांभःपूरपरिपूर्णप्रणालिकावत्संस्थितकलेवरसंभवहेतु-
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार[ १९७
दृग्ज्ञान - लक्षित और शाश्वत मात्रआत्मा मम अरे
अरु शेष सब संयोग लक्षित भाव मुझसे है परे ।।१०२।।