Niyamsar (Hindi). Gatha: 103.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
भूतद्रव्यभावकर्माभावादेकः, स एव निखिलक्रियाकांडाडंबरविविधविकल्पकोलाहल-
निर्मुक्त सहजशुद्धज्ञानचेतनामतीन्द्रियं भुंजानः सन् शाश्वतो भूत्वा ममोपादेयरूपेण तिष्ठति,
यस्त्रिकालनिरुपाधिस्वभावत्वात
् निरावरणज्ञानदर्शनलक्षणलक्षितः कारणपरमात्मा; ये
शुभाशुभकर्मसंयोगसंभवाः शेषा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहाः, स्वस्वरूपाद्बाह्यास्ते सर्वे; इति मम
निश्चयः
(मालिनी)
अथ मम परमात्मा शाश्वतः कश्चिदेकः
सहजपरमचिच्चिन्तामणिर्नित्यशुद्धः
निरवधिनिजदिव्यज्ञानद्रग्भ्यां समृद्धः
किमिह बहुविकल्पैर्मे फलं बाह्यभावैः ।।१३८।।
जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे
सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिरायारं ।।१०३।।
पानी भरनेके लिये जलप्रवाहसे परिपूर्ण नाली समान वर्तता हुआ जो शरीर उसकी उत्पत्तिमें
हेतुभूत द्रव्यकर्म
- भावकर्म रहित होनेसे एक है, और वही (कारणपरमात्मा) समस्त
क्रियाकाण्डके आडम्बरके विविध विकल्परूप कोलाहलसे रहित सहजशुद्ध - ज्ञानचेतनाको
अतीन्द्रियरूपसे भोगता हुआ शाश्वत रहकर मेरे लिये उपादेयरूपसे रहता है; जो शुभाशुभ
कर्मके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले शेष बाह्य
- अभ्यंतर परिग्रह, वे सब निज स्वरूपसे बाह्य
हैं ऐसा मेरा निश्चय है

[अब इस १०२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] अहो ! मेरा परमात्मा शाश्वत है, एक है, सहज परम चैतन्यचिन्तामणि है, सदा शुद्ध है और अनन्त निज दिव्य ज्ञानदर्शनसे समृद्ध है ऐसा है तो फि र बहु प्रकारके बाह्य भावोंसे मुझे क्या फल है ? १३८

जो कोइ भी दुष्चरित मेरा सर्व त्रयविधिसे तजूँ
अरु त्रिविध सामायिक चरित सब, निर्विकल्पक आचरूँ ।।१०३।।