द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् ।
द्रव्यं प्रतीत्य यदि वा चरणं प्रतीत्य ।।’’
उत्तरोत्तर स्वीकृत (अंगीकृत) करनेसे सहज परम तत्त्वमें अविचल स्थितिरूप सहज निश्चयचारित्र होता है — कि जो (निश्चयचारित्र) निराकार तत्त्वमें लीन होनेसे निराकार चारित्र है ।
इसीप्रकार श्री प्रवचनसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामक) टीकामें (१२वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] चरण द्रव्यानुसार होता है और द्रव्य चरणानुसार होता है — इसप्रकार वे दोनों परस्पर अपेक्षासहित हैं; इसलिये या तो द्रव्यका आश्रय करके अथवा तो चरणका आश्रय करके मुमुक्षु (ज्ञानी, मुनि) मोक्षमार्गमें आरोहण करो ।’’
और (इस १०३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जिनकी बुद्धि चैतन्यतत्त्वकी भावनामें आसक्त (रत, लीन) है ऐसे यति यममें प्रयत्नशील रहते हैं (अर्थात् संयममें सावधान रहते हैं ) — कि जो यम ( – संयम) यातनाशील यमके ( – दुःखमय मरणके) नाशका कारण है ।१३९।