परिणतेरभावान्न मे केनचिज्जनेन सह वैरम्; सहजवैराग्यपरिणतेः न मे काप्याशा विद्यते; परमसमरसीभावसनाथपरमसमाधिं प्रपद्येऽहमिति ।
गाथा : १०४ अन्वयार्थ : — [सर्वभूतेषु ] सर्व जीवोंके प्रति [मे ] मुझे [साम्यं ] समता है, [मह्यं ] मुझे [केनचित् ] किसीके साथ [वैरं न ] वैर नहीं है; [नूनम् ] वास्तवमें [आशाम् उत्सृज्य ] आशाको छोड़कर [समाधिः प्रतिपद्यते ] मैं समाधिको प्राप्त करता हूँ ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें) अंतर्मुख परम - तपोधनकी भावशुद्धिका कथन है ।
जिसने समस्त इन्द्रियोंके व्यापारको छोड़ा है ऐसे मुझे भेदविज्ञानियों तथा अज्ञानियोंके प्रति समता है; मित्र - अमित्ररूप (मित्ररूप अथवा शत्रुरूप) परिणतिके अभावके कारण मुझे किसी प्राणीके साथ वैर नहीं है; सहज वैराग्यपरिणतिके कारण मुझे कोई भी आशा नहीं वर्तती; परम समरसीभावसंयुक्त परम समाधिका मैं आश्रय करता हूँ (अर्थात् परम समाधिको प्राप्त करता हूँ ) ।
इसीप्रकार श्री योगीन्द्रदेवने (अमृताशीतिमें २१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —