‘‘[श्लोकार्थ : — ] हे भाई ! स्वाभाविक बलसम्पन्न ऐसा तू आलस्य छोड़कर,
उत्कृष्ट समतारूपी कुलदेवीका स्मरण करके, अज्ञानमंत्री सहित मोहशत्रुका नाश करनेवाले
इस सम्यग्ज्ञानरूपी चक्रको शीघ्र ग्रहण कर ।’’
अब (इस १०४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] जो (समता) मुक्तिसुन्दरीकी सखी है, जो मोक्षसौख्यका मूल
है, जो दुर्भावनारूपी तिमिरसमूहको (नष्ट करनेके लिये) चन्द्रके प्रकाश समान है और जो
संयमियोंको निरंतर संमत है, उस समताको मैं अत्यंत भाता हूँ ।१४०।
[श्लोकार्थ : — ] जो योगियोंको भी दुर्लभ है, जो निजाभिमुख सुखके सागरमें
ज्वार लानेके लिये पूर्ण चन्द्रकी प्रभा (समान) है, जो परम संयमियोंकी दीक्षारूपी स्त्रीके
मनको प्यारी सखी है तथा जो मुनिवरोंके समूहका तथा तीन लोकका भी अतिशयरूपसे
आभूषण है, वह समता सदा जयवन्त है ।१४१।
(वसंततिलका)
‘‘मुक्त्वालसत्वमधिसत्त्वबलोपपन्नः
स्मृत्वा परां च समतां कुलदेवतां त्वम् ।
संज्ञानचक्रमिदमङ्ग गृहाण तूर्ण-
मज्ञानमन्त्रियुतमोहरिपूपमर्दि ।।’’
तथा हि —
(वसंततिलका)
मुक्त्यङ्गनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं
दुर्भावनातिमिरसंहतिचन्द्रकीर्तिम् ।
संभावयामि समतामहमुच्चकैस्तां
या संमता भवति संयमिनामजस्रम् ।।१४०।।
(हरिणी)
जयति समता नित्यं या योगिनामपि दुर्लभा
निजमुखसुखवार्धिप्रस्फारपूर्णशशिप्रभा ।
परमयमिनां प्रव्रज्यास्त्रीमनःप्रियमैत्रिका
मुनिवरगणस्योच्चैः सालंक्रिया जगतामपि ।।१४१।।
२०२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-