२०४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
कुद्रष्टेरपि पुरुषस्य चारित्रमोहोदयहेतुभूतद्रव्यभावकर्मक्षयोपशमेन क्वचित् कदाचित् संभवति ।
अत एव निश्चयप्रत्याख्यानं हितम् अत्यासन्नभव्यजीवानाम्; यतः स्वर्णनाम-
धेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिर्वेगता निश्चय-
धेयधरस्य पाषाणस्योपादेयत्वं न तथांधपाषाणस्येति । ततः संसारशरीरभोगनिर्वेगता निश्चय-
प्रत्याख्यानस्य कारणं, पुनर्भाविकाले संभाविनां निखिलमोहरागद्वेषादिविविधविभावानां
परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भवविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्ध-
निश्चयप्रत्याख्यानम् इति ।
परिहारः परमार्थप्रत्याख्यानम्, अथवानागतकालोद्भवविविधान्तर्जल्पपरित्यागः शुद्ध-
निश्चयप्रत्याख्यानम् इति ।
(हरिणी)
जयति सततं प्रत्याख्यानं जिनेन्द्रमतोद्भवं
परमयमिनामेतन्निर्वाणसौख्यकरं परम् ।
परमयमिनामेतन्निर्वाणसौख्यकरं परम् ।
सहजसमतादेवीसत्कर्णभूषणमुच्चकैः
मुनिप शृणु ते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ।।१४२।।
मुनिप शृणु ते दीक्षाकान्तातियौवनकारणम् ।।१४२।।
-भावकर्मके क्षयोपशम द्वारा क्वचित् कदाचित् संभवित है । इसीलिये निश्चयप्रत्याख्यान
अति - आसन्नभव्य जीवोंको हितरूप है; क्योंकि जिसप्रकार ❃सुवर्णपाषाण नामक पाषाण
उपादेय है उसीप्रकार अन्धपाषाण नहीं है । इसलिये (यथोचित् शुद्धता सहित) संसार तथा
शरीर सम्बन्धी भोगकी निर्वेगता निश्चयप्रत्याख्यानका कारण है और भविष्य कालमें
होनेवाले समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विभावोंका परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है
अथवा अनागत कालमें उत्पन्न होनेवाले विविध अन्तर्जल्पोंका ( – विकल्पोंका) परित्याग
होनेवाले समस्त मोहरागद्वेषादि विविध विभावोंका परिहार वह परमार्थ प्रत्याख्यान है
अथवा अनागत कालमें उत्पन्न होनेवाले विविध अन्तर्जल्पोंका ( – विकल्पोंका) परित्याग
वह शुद्ध निश्चयप्रत्याख्यान है ।
[अब इस १०५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] हे मुनिवर ! सुन; जिनेन्द्रके मतमें उत्पन्न होनेवाला प्रत्याख्यान सतत जयवन्त है । वह प्रत्याख्यान परम संयमियोंको उत्कृष्टरूपसे निर्वाणसुखका करनेवाला है, सहज समतादेवीके सुन्दर कर्णका महा आभूषण है और तेरी दीक्षारूपी प्रिय स्त्रीके अतिशय यौवनका कारण है ।१४२। ❃ जिस पाषाणमें सुवर्ण होता है उसे सुवर्णपाषाण कहते हैं और जिस पाषाणमें सुवर्ण नहीं होता उसे अंधपाषाण
कहते हैं ।