गाथा : १०६ अन्वयार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [यः ] जो [नित्यम् ] सदा
[जीवकर्मणोः ] जीव और कर्मके [भेदाभ्यासं ] भेदका अभ्यास [करोति ] करता है, [सः
संयतः ] वह संयत [नियमात् ] नियमसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [धर्तुं ] धारण करनेको
[शक्तः ] शक्तिमान है ।
टीका : — यह, निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकारके उपसंहारका कथन है ।
श्रीमद् अर्हंतके मुखारविंदसे निकले हुए परमागमके अर्थका विचार करनेमें समर्थ
ऐसा जो परम संयमी अनादि बन्धनरूप सम्बन्धवाले अशुद्ध अन्तःतत्त्व और कर्मपुद्गलका
भेद भेदाभ्यासके बलसे करता है, वह परम संयमी निश्चयप्रत्याख्यान तथा
व्यवहारप्रत्याख्यानको स्वीकृत ( – अंगीकृत) करता है ।
[अब, इस निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] ‘जो भावि कालके भव - भावोंसे (संसारभावोंसे) निवृत्त है वह
एवं भेदब्भासं जो कुव्वइ जीवकम्मणो णिच्चं ।
पच्चक्खाणं सक्कदि धरिदुं सो संजदो णियमा ।।१०६।।
एवं भेदाभ्यासं यः करोति जीवकर्मणोः नित्यम् ।
प्रत्याख्यानं शक्तो धर्तुं स संयतो नियमात् ।।१०६।।
निश्चयप्रत्याख्यानाध्यायोपसंहारोपन्यासोयम् ।
यः श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षमः अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयो-
रनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदं भेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं
स्वीकरोतीति ।
(स्वागता)
भाविकालभवभावनिवृत्तः
सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः ।
भावयेदखिलसौख्यनिधानं
स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ।।१४३।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार[ २०५
यों जीव कर्म विभेद अभ्यासी रहे जो नित्य ही ।
है संयमी जन नियत प्रत्याख्यान - धारण क्षम वही ।।१०६।।