रनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदं भेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति ।
सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः ।
स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ।।१४३।।
गाथा : १०६ अन्वयार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [यः ] जो [नित्यम् ] सदा [जीवकर्मणोः ] जीव और कर्मके [भेदाभ्यासं ] भेदका अभ्यास [करोति ] करता है, [सः संयतः ] वह संयत [नियमात् ] नियमसे [प्रत्याख्यानं ] प्रत्याख्यान [धर्तुं ] धारण करनेको [शक्तः ] शक्तिमान है ।
श्रीमद् अर्हंतके मुखारविंदसे निकले हुए परमागमके अर्थका विचार करनेमें समर्थ ऐसा जो परम संयमी अनादि बन्धनरूप सम्बन्धवाले अशुद्ध अन्तःतत्त्व और कर्मपुद्गलका भेद भेदाभ्यासके बलसे करता है, वह परम संयमी निश्चयप्रत्याख्यान तथा व्यवहारप्रत्याख्यानको स्वीकृत ( – अंगीकृत) करता है ।
[अब, इस निश्चय - प्रत्याख्यान अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]