Niyamsar (Hindi).

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२०६ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(स्वागता)
घोरसंसृतिमहार्णवभास्व-
द्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः
तत्त्वतः परमतत्त्वमजस्रं
भावयाम्यहमतो जितमोहः
।।१४४।।
(मंदाक्रांता)
प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः
भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्टबुद्धेः
नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां
भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा
।।१४५।।
(शिखरिणी)
महानंदानंदो जगति विदितः शाश्वतमयः
स सिद्धात्मन्युच्चैर्नियतवसतिर्निर्मलगुणे
अमी विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्रैरभिहताः
कथं कांक्षंत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः
।।१४६।।
मैं हूँ’ इसप्रकार मुनिश्वरको मलसे मुक्त होनेके लिये परिपूर्ण सौख्यके निधानभूत निर्मल
निज स्वरूपको प्रतिदिन भाना चाहिये
१४३

[श्लोकार्थ : ] घोर संसारमहार्णवकी यह (परम तत्त्व) दैदीप्यमान नौका है ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है; इसलिये मैं मोहको जीतकर निरन्तर परम तत्त्वको तत्त्वतः (पारमार्थिक रीतिसे) भाता हूँ १४४

[श्लोकार्थ : ] भ्रान्तिके नाशसे जिसकी बुद्धि सहज - परमानन्दयुक्त चेतनमें निष्ठित (लीन, एकाग्र) है ऐसे शुद्धचारित्रमूर्तिको सतत प्रत्याख्यान है परसमयमें (अन्य दर्शनमें) जिनका स्थान है ऐसे अन्य योगियोंको प्रत्याख्यान नहीं होता; उन संसारियोंको पुनःपुनः घोर संसरण (परिभ्रमण) होता है १४५

[श्लोकार्थ : ] जो शाश्वत महा आनन्दानन्द जगतमें प्रसिद्ध है, वह निर्मल गुणवाले सिद्धात्मामें अतिशयरूपसे तथा नियतरूपसे रहता है (तो फि र,) अरेरे ! यह विद्वान भी कामके तीक्ष्ण शस्त्रोंसे घायल होते हुए क्लेशपीड़ित होकर उसकी (कामकी) इच्छा क्यों करते हैं ! वे जड़बुद्धि हैं १४६