[श्लोकार्थ : — ] जो जिनप्रभुके मुखारविंदसे विदित (प्रसिद्ध) है, जो स्वरूपमें
स्थित है, जो मुनीश्वरोंके मनोगृहके भीतर सुन्दर रत्नदीपकी भाँति प्रकाशित है, जो इस
लोकमें दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियोंसे नमस्कार करने योग्य है तथा जो
सुखका मन्दिर है, उस सहज तत्त्वको मैं सदा अत्यन्त नमस्कार करता हूँ । १५० ।
[श्लोकार्थ : — ] जिसने पापकी राशिको नष्ट किया है, जिसने पुण्यकर्मके
समूहको हना है, जिसने मदन ( – काम) आदिको झाड़ दिया है, जो प्रबल ज्ञानका महल
है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं, जो प्रकरणके नाशस्वरूप है (अर्थात् जिसे कोई कार्य
करना शेष नहीं है — जो कृतकृत्य है ), जो पुष्ट गुणोंका धाम है तथा जिसने मोहरात्रिका
नाश किया है, उसे ( – उस सहज तत्त्वको) हम नमस्कार करते हैं । १५१ ।
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार नामका छठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।
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(पृथ्वी)
जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं
मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम् ।
नमस्यमिह योगिभिर्विजितद्रष्टिमोहादिभिः
नमामि सुखमन्दिरं सहजतत्त्वमुच्चैरदः ।।१५०।।
(पृथ्वी)
प्रणष्टदुरितोत्करं प्रहतपुण्यकर्मव्रजं
प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम् ।
प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं
प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रिं नुमः ।।१५१।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव -
विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः षष्ठः श्रुतस्कन्धः ।।
२०८ ]नियमसार