Niyamsar (Hindi). Adhikar-7 : Param AlochanA Adhikar Gatha: 107.

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अब आलोचना अधिकार कहा जाता है
गाथा : १०७ अन्वयार्थ :[नोकर्मकर्मरहितं ] नोकर्म और कर्मसे रहित
तथा [विभावगुणपर्ययैः व्यतिरिक्तम् ] विभावगुणपर्यायोंसे व्यतिरिक्त [आत्मानं ] आत्माको
[यः ] जो [ध्यायति ] ध्याता है, [श्रमणस्य ] उस श्रमणको [आलोचना ] आलोचना
[भवति ] है
टीका :यह, निश्चय - आलोचनाके स्वरूपका कथन है
औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वे नोकर्म हैं; ज्ञानावरण,
परम-आलोचना अधिकार
आलोचनाधिकार उच्यते
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं
अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ।।१०७।।
नोकर्मकर्मरहितं विभावगुणपर्ययैर्व्यतिरिक्त म्
आत्मानं यो ध्यायति श्रमणस्यालोचना भवति ।।१०७।।
निश्चयालोचनास्वरूपाख्यानमेतत
औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि, ज्ञानदर्शना-
व्यतिरिक्त = रहित; भिन्न
नोकर्म, कर्म, विभाव, गुण पर्याय विरहित आतमा
ध्याता उसे, उस श्रमणको होती परम - आलोचना ।।१०७।।