Niyamsar (Hindi).

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दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नामके द्रव्यकर्म हैं
कर्मोपाधिनिरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे परमात्मा इन नोकर्मों
और द्रव्यकर्मोंसे रहित है मतिज्ञानादिक वे विभावगुण हैं और नर - नारकादि व्यंजनपर्यायें
ही विभावपर्यायें हैं; गुण सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमभावी होती हैं परमात्मा इन सबसे
(विभावगुणों तथा विभावपर्यायोंसे) व्यतिरिक्त है उपरोक्त नोकर्मों और द्रव्यकर्मोंसे रहित
तथा उपरोक्त समस्त विभावगुणपर्यायोंसे व्यतिरिक्त तथा स्वभावगुणपर्यायोंसे संयुक्त,
त्रिकाल
- निरावरण निरंजन परमात्माको त्रिगुप्तिगुप्त (तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी) परमसमाधि
द्वारा जो परम श्रमण सदा अनुष्ठानसमयमें वचनरचनाके प्रपंचसे (विस्तारसे) पराङ्मुख
वर्तता हुआ ध्याता है, उस भावश्रमणको सतत निश्चयआलोचना है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें २२७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] मोहके विलाससे फै ला हुआ जो यह उदयमान (उदयमें
आनेवाला) कर्म उस समस्तको आलोचकर (उन सर्व कर्मोंकी आलोचना करके), मैं
निष्कर्म (अर्थात् सर्व कर्मोंसे रहित) चैतन्यस्वरूप आत्मामें आत्मासे ही (स्वयंसे ही)
निरंतर वर्तता हूँ ’’
वरणांतरायमोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यकर्माणि कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ता-
ग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्त म् मतिज्ञानादयो
विभावगुणा नरनारकादिव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः
पर्यायाश्च एभिः समस्तैः व्यतिरिक्तं , स्वभावगुणपर्यायैः संयुक्तं, त्रिकालनिरावरणनिरंजन-
परमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंच-
पराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
(आर्या)
‘‘मोहविलासविजृंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ।।’’
शुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनय कर्मोपाधिकी अपेक्षा रहित सत्ताको ही ग्रहण करता है
२१० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-