और उपासकाध्ययनमें (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डश्रावकाचारमें १२५वें
श्लोक द्वारा) कहा है कि : —
‘‘[श्लोकार्थ : — ] किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापोंकी
निष्कपटरूपसे आलोचना करके, मरणपर्यंत रहनेवाला, निःशेष ( – परिपूर्ण) महाव्रत धारण
करना ।’’
और (इस १०७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] घोर संसारके मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृतको सदा आलोच-
आलोचकर मैं निरुपाधिक ( – स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्माको आत्मासे ही
अवलम्बता हूँ । फि र द्रव्यकर्मस्वरूप समस्त प्रकृतिको अत्यन्त नष्ट करके सहजविलसती
ज्ञानलक्ष्मीको मैं प्राप्त करूँगा ।१५२।
उक्तं चोपासकाध्ययने —
(आर्या)
‘‘आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् ।
आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।।’’
तथा हि —
आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं
शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे ।
पश्चादुच्चैः प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां
नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि ।।१५२।।
आलोयणमालुंछण वियडीकरणं च भावसुद्धी य ।
चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए ।।१०८।।
है शास्त्रमें वर्णित चतुर्विधरूपमें आलोचना ।
आलोचना, अविकृतिकरण, अरु शुद्धता, आलुंछना ।।१०८।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २११