Niyamsar (Hindi).

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गाथा : १०८ अन्वयार्थ :[इह ] अब, [आलोचनलक्षणं ] आलोचनाका
स्वरूप [आलोचनम् ] आलोचन, [आलुंछनम् ] आलुंछन, [अविकृतिकरणम् ]
अविकृतिकरण [च ] और [भावशुद्धिः च ] भावशुद्धि [चतुर्विधं ] ऐसे चार प्रकारका
[समये ] शास्त्रमें [परिकथितम् ] कहा है
टीका :यह, आलोचनाके स्वरूपके भेदोंका कथन है
भगवान अर्हंतके मुखारविंदसे निकली हुई, (श्रवणके लिये आई हुई) सकल
जनताको श्रवणका सौभाग्य प्राप्त हो ऐसी, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर - आनन्दझरती),
अनक्षरात्मक जो दिव्यध्वनि, उसके परिज्ञानमें कुशल चतुर्थज्ञानधर (मनःपर्ययज्ञानधारी)
गौतममहर्षिके मुखकमलसे निकली हुई जो चतुर वचनरचना, उसके गर्भमें विद्यमान
राद्धांतादि (
सिद्धांतादि) समस्त शास्त्रोंके अर्थसमूहके सारसर्वस्वरूप शुद्ध - निश्चय - परम -
आलोचनाके चार भेद हैं वे भेद अब आगे कहे जाने वाले चार सूत्रोंमें
कहे जायेंगे
[अब इस १०८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
आलोचनमालुंछनमविकृतिकरणं च भावशुद्धिश्च
चतुर्विधमिह परिकथितं आलोचनलक्षणं समये ।।१०८।।
आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत
भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसकलजनताश्रुतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनक्षरात्मकदिव्य-
ध्वनिपरिज्ञानकुशलचतुर्थज्ञानधरगौतममहर्षिमुखकमलविनिर्गतचतुरसन्दर्भगर्भीकृतराद्धान्तादि-
समस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति
ते
वक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त इति
स्वयं अपने दोषोंको सूक्ष्मतासे देख लेना अथवा गुरुके समक्ष अपने दोषोंका निवेदन करना सो व्यवहार
आलोचन है निश्चयआलोचनका स्वरूप १०९ वीं गाथामें कहा जायेगा
आलुंछन = (दोषोंका) आलुंचन अर्थात् उखाड़ देना वह
अविकृतिकरण = विकाररहितता करना वह
भावशुद्धि = भावोंको शुद्ध करना वह
२१२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-