[श्लोकार्थ : — ] मुक्तिरूपी रमणीके संगमके हेतुभूत ऐसे इन आलोचनाके
भेदोंको जानकर जो भव्य जीव वास्तवमें निज आत्मामें स्थिति प्राप्त करता है, उस
स्वात्मनिष्ठितको ( – उस निजात्मामें लीन भव्य जीवको) नमस्कार हो । १५३ ।
गाथा : १०९ अन्वयार्थ : — [यः ] जो (जीव) [परिणामम् ] परिणामको
[समभावे ] समभावमें [संस्थाप्य ] स्थापकर [आत्मानं ] (निज) आत्माको [पश्यति ]
देखता है, [आलोचनम् ] वह आलोचन है । [इति ] ऐसा [परमजिनेन्द्रस्य ] परम जिनेन्द्रका
[उपदेशम् ] उपदेश [जानीहि ] जान ।
टीका : — यहाँ, आलोचनाके स्वीकारमात्रसे परमसमताभावना कही गई है ।
सहजवैराग्यरूपी अमृतसागरके फे न - समूहके श्वेत शोभामण्डलकी वृद्धिके हेतुभूत
पूर्ण चन्द्र समान (अर्थात् सहज वैराग्यमें ज्वार लाकर उसकी उज्ज्वलता बढ़ानेवाला) जो
जीव सदा अंतर्मुखाकार ( – सदा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), अति अपूर्व, निरंजन
(इंद्रवज्रा)
आलोचनाभेदममुं विदित्वा
मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् ।
स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीवः
तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय ।।१५३।।
जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ।।१०९।।
यः पश्यत्यात्मानं समभावे संस्थाप्य परिणामम् ।
आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ।।१०९।।
इहालोचनास्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता ।
यः सहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथडिंडीरपिंडपरिपांडुरमंडनमंडलीप्रवृद्धिहेतुभूतराकानिशी-
थिनीनाथः सदान्तर्मुखाकारमत्यपूर्वं निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरव-
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २१३
समभावमें परिणाम स्थापे और देखे आतमा ।
जिनवर वृषभ उपदेशमें वह जीव है आलोचना ।।१०९।।