Niyamsar (Hindi).

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२१४ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
शेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति; किं कृत्वा ? पूर्वं निज-
परिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात
् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति
(स्रग्धरा)
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं
यो मुक्ति श्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति
सोऽयं वंद्यः सुरेशैर्यमधरततिभिः खेचरैर्भूचरैर्वा
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम्
।।१५४।।
(मंदाक्रांता)
आत्मा स्पष्टः परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः
निजबोधके स्थानभूत कारणपरमात्माको निरवशेषरूपसे अन्तर्मुख निज स्वभावनिरत सहज
अवलोकन द्वारा निरंतर देखता है (अर्थात् जो जीव कारणपरमात्माको सर्वथा अन्तर्मुख ऐसा
जो निज स्वभावमें लीन सहज
- अवलोकन उसके द्वारा निरंतर देखता हैअनुभवता है );
क्या करके देखता है ? पहले निज परिणामको समतावलम्बी करके, परमसंयमीभूतरूपसे
रहकर देखता है; वही आलोचनाका स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथके उपदेश
द्वारा जान
ऐसा यह, आलोचनाके भेदोंमें प्रथम भेद हुआ

[अब इस १०९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार जो आत्मा आत्माको आत्मा द्वारा आत्मामें अविचल निवासवाला देखता है, वह अनंग - सुखमय (अतीन्द्रिय आनन्दमय) ऐसे मुक्तिलक्ष्मीके विलासोंको अल्प कालमें प्राप्त करता है वह आत्मा सुरेशोंसे, संयमधरोंकी पंक्तियोंसे, खेचरोंसे (विद्याधरोंसे) तथा भूचरोंसे (भूमिगोचरियोंसे) वंद्य है मैं उस सर्ववंद्य सकलगुणनिधिको (सर्वसे वंद्य ऐसे समस्त गुणोंके भण्डारको) उसके गुणोंकी अपेक्षासे (अभिलाषासे) वंदन करता हूँ १५४

[श्लोकार्थ : ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापतिमिरके पुंजका नाश किया है और