जो पुराण ( – सनातन) है ऐसा आत्मा परमसंयमियोंके चित्तकमलमें स्पष्ट है । वह आत्मा
संसारी जीवोंके वचन - मनोमार्गसे अतिक्रांत ( – वचन तथा मनके मार्गसे अगोचर) है । इस
निकट परमपुरुषमें विधि क्या और निषेध क्या ? १५५।
इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वरने वास्तवमें व्यवहार - आलोचनाके
प्रपंचका १उपहास किया है ।
[श्लोकार्थ : — ] जो सकल इन्द्रियोंके समूहसे उत्पन्न होनेवाले कोलाहलसे
विमुक्त है, जो नय और अनयके समूहसे दूर होने पर भी योगियोंको गोचर है, जो सदा
शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियोंको परम दूर है, ऐसा यह २अनघ - चैतन्यमय
सहजतत्त्व अत्यन्त जयवन्त है ।१५६।
[श्लोकार्थ : — ] निज सुखरूपी सुधाके सागरमें डूबते हुए इस शुद्धात्माको
सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ्मनोमार्गमस्मि-
न्नारातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः ।।१५५।।
एवमनेन पद्येन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः ।
(पृथ्वी)
जयत्यनघचिन्मयं सहजतत्त्वमुच्चैरिदं
विमुक्त सकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम् ।
नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ।।१५६।।
(मंदाक्रांता)
शुद्धात्मानं निजसुखसुधावार्धिमज्जन्तमेनं
बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति ।
तस्मादुच्चैरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्वं
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम् ।।१५७।।
१ – उपहास = हँसी; मजाक; खिल्ली; तिरस्कार ।
२ – अनघ = निर्दोष; मल रहित; शुद्ध ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २१५