जानकर भव्य जीव परम गुरु द्वारा शाश्वत सुखको प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेदके
अभावकी दृष्टिसे जो सिद्धिसे उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी
(अद्भुत) सहज तत्त्वको मैं भी सदा अति - अपूर्व रीतिसे अत्यन्त भाता हूँ ।१५७।
[श्लोकार्थ : — ] सर्व संगसे निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभावसे मुक्त
ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं निर्वाणरूपी स्त्रीसे उत्पन्न होनेवाले अनंग सुखके लिये
नित्य संभाता हूँ ( – सम्यक्रूपसे भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ ।१५८।
[श्लोकार्थ : — ] निज भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर एक
निर्मल चिन्मात्रको मैं भाता हूँ । संसारसागरको तर जानेके लिये, अभेद कहे हुए
( – जिसे जिनेन्द्रोंने भेद रहित कहा है ऐसे) मुक्तिके मार्गको भी मैं नित्य नमन करता
हूँ ।१५९।
(वसंततिलका)
निर्मुक्त संगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्त म् ।
संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय ।।१५८।।
(वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि ।
संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्त म् ।।१५९।।
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो ।
साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठं ।।११०।।
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
जो कर्म - तरु - जड़ नाशके सामर्थ्यरूप स्वभाव है ।
स्वाधीन निज समभाव आलुंछन वही परिणाम है ।।११०।।