Niyamsar (Hindi). Gatha: 110.

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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
(वसंततिलका)
निर्मुक्त संगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्त म्
संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय
।।१५८।।
(वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि
संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्त म्
।।१५९।।
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो
साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठं ।।११०।।
जानकर भव्य जीव परम गुरु द्वारा शाश्वत सुखको प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेदके
अभावकी दृष्टिसे जो सिद्धिसे उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी
(अद्भुत) सहज तत्त्वको मैं भी सदा अति
- अपूर्व रीतिसे अत्यन्त भाता हूँ १५७

[श्लोकार्थ : ] सर्व संगसे निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभावसे मुक्त ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं निर्वाणरूपी स्त्रीसे उत्पन्न होनेवाले अनंग सुखके लिये नित्य संभाता हूँ (सम्यक्रूपसे भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ १५८

[श्लोकार्थ : ] निज भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्रको मैं भाता हूँ संसारसागरको तर जानेके लिये, अभेद कहे हुए (जिसे जिनेन्द्रोंने भेद रहित कहा है ऐसे) मुक्तिके मार्गको भी मैं नित्य नमन करता हूँ १५९

जो कर्म - तरु - जड़ नाशके सामर्थ्यरूप स्वभाव है
स्वाधीन निज समभाव आलुंछन वही परिणाम है ।।११०।।