गाथा : ११० अन्वयार्थ : — [कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः ] कर्मरूपी वृक्षका
मूल छेदनेमें समर्थ ऐसा जो [समभावः ] समभावरूप [स्वाधीनः ] स्वाधीन
[स्वकीयपरिणामः ] निज परिणाम [आलुंछनम् इति समुद्दिष्टम् ] उसे आलुञ्छन कहा है ।
टीका : — यह, परमभावके स्वरूपका कथन है ।
भव्यको पारिणामिकभावरूप स्वभाव होनेके कारण परम स्वभाव है । वह पंचम भाव
औदयिकादि चार विभावस्वभावोंको अगोचर है । इसीलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा,
क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोंसे रहित है । इस कारणसे इस एकको परमपना है, शेष
चार विभावोंको अपरमपना है । समस्त कर्मरूपी विषवृक्षके मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा
यह परमभाव, त्रिकाल - निरावरण निज कारणपरमात्माके स्वरूपकी श्रद्धासे प्रतिपक्ष तीव्र
मिथ्यात्वकर्मके उदयके कारण कुदृष्टिको, सदा निश्चयसे विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान
ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टिको उस परमभावके विद्यमानपनेकी श्रद्धा नहीं है ) । नित्यनिगोदके
जीवोंको भी शुद्धनिश्चयनयसे वह परमभाव ‘अभव्यत्वपारिणामिक’ ऐसे नाम सहित नहीं है
(परन्तु शुद्धरूपसे ही है ) । जिसप्रकार मेरुके अधोभागमें स्थित सुवर्णराशिको भी सुवर्णपना
है, उसीप्रकार अभव्योंको भी परमस्वभावपना है; वह वस्तुनिष्ठ है, व्यवहारयोग्य नहीं है
(अर्थात् जिसप्रकार मेरुके नीचे स्थित सुवर्णराशिका सुवर्णपना सुवर्णराशिमें विद्यमान है किन्तु
वह काममें — उपयोगमें नहीं आता, उसीप्रकार अभव्योंका परमस्वभावपना आत्मवस्तुमें
विद्यमान है किन्तु वह काममें नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परमस्वभावका आश्रय करनेके
कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः ।
स्वाधीनः समभावः आलुंछनमिति समुद्दिष्टम् ।।११०।।
परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् ।
भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः । औदयिकादिचतुर्णां विभाव-
स्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः ।
अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम्, इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्मविषवृक्ष-
मूलनिर्मूलनसमर्थः त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मो-
दयबलेन कुद्रष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव । नित्यनिगोदक्षेत्र-
ज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति ।
कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २१७