२१८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं,
न व्यवहारयोग्यम् । सुद्रशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्;
न व्यवहारयोग्यम् । सुद्रशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्;
यतः सकलकर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवा-
लुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति ।
(मंदाक्रांता)
एको भावः स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः
कर्मारातिस्फु टितसहजावस्थया संस्थितो यः ।
कर्मारातिस्फु टितसहजावस्थया संस्थितो यः ।
मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ।।१६०।।
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ।।१६०।।
(मंदाक्रांता)
आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा ।
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा ।
ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभ्मंडलं शुद्धभावं
मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति ।।१६१।।
मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति ।।१६१।।
लिये अयोग्य हैं ) । सुदृष्टियोंको — अति आसन्नभव्य जीवोंको — यह परमभाव सदा
निरंजनपनेके कारण (अर्थात् सदा निरंजनरूपसे प्रतिभासित होनेके कारण) सफल हुआ है;
जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति - आसन्नभव्य जीवको निश्चय - परम - आलोचनाके
जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति - आसन्नभव्य जीवको निश्चय - परम - आलोचनाके
भेदरूपसे उत्पन्न होनेवाला ‘आलुंछन’ नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त
कर्मरूपी विषम - विषवृक्षके विशाल मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ है ।
कर्मरूपी विषम - विषवृक्षके विशाल मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ है ।
[अब इस ११०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो कर्मकी दूरीके कारण प्रगट सहजावस्थापूर्वक विद्यमान है, जो आत्मनिष्ठापरायण (आत्मस्थित) समस्त मुनियोंको मुक्तिका मूल है, जो एकाकार है (अर्थात् सदा एकरूप है ), जो निज रसके फै लावसे भरपूर होनेके कारण पवित्र है और जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध - शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवन्त है ।१६०।
[श्लोकार्थ : — ] अनादि संसारसे समस्त जनताको ( – जनसमूहको) तीव्र मोहके उदयके कारण ज्ञानज्योति सदा मत्त है, कामके वश है और निज आत्मकार्यमें