यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-[निलयं मध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति । मूढ़ है । मोहके अभावसे यह ज्ञानज्योति शुद्धभावको प्राप्त करती है — कि जिस शुद्धभावने दिशामण्डलको धवलित ( – उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है ।१६१।
गाथा : १११ अन्वयार्थ : — [मध्यस्थभावनायाम् ] जो मध्यस्थभावनामें [कर्मणः भिन्नम् ] कर्मसे भिन्न [आत्मानं ] आत्माको — [विमलगुणनिलयं ] कि जो विमल गुणोंका निवास है उसे — [भावयति ] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम् ] उस जीवको अविकृतिकरण जानना ।
टीका : — यहाँ शुद्धोपयोगी जीवकी परिणतिविशेषका (मुख्य परिणतिका) कथन है ।
पापरूपी अटवीको जलानेके लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न आत्माको — कि जो सहज गुणोंका निधान है उसे — मध्यस्थभावनामें भाता है, उसे अविकृतिकरण-नामक परम - आलोचनाका स्वरूप वर्तता ही है ।
[अब इस १११वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ श्लोक कहते हैं : ]