Niyamsar (Hindi). Gatha: 111.

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कहानजैनशास्त्रमाला ]परम-आलोचना अधिकार[ २१९
कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं
मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ।।१११।।
कर्मणः आत्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम्
मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विज्ञेयम् ।।१११।।
इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्त :

यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-[निलयं मध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति मूढ़ है मोहके अभावसे यह ज्ञानज्योति शुद्धभावको प्राप्त करती हैकि जिस शुद्धभावने दिशामण्डलको धवलित (उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है १६१

गाथा : १११ अन्वयार्थ :[मध्यस्थभावनायाम् ] जो मध्यस्थभावनामें [कर्मणः भिन्नम् ] कर्मसे भिन्न [आत्मानं ] आत्माको[विमलगुणनिलयं ] कि जो विमल गुणोंका निवास है उसे[भावयति ] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम् ] उस जीवको अविकृतिकरण जानना

टीका :यहाँ शुद्धोपयोगी जीवकी परिणतिविशेषका (मुख्य परिणतिका) कथन है

पापरूपी अटवीको जलानेके लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्मसे भिन्न आत्माकोकि जो सहज गुणोंका निधान है उसेमध्यस्थभावनामें भाता है, उसे अविकृतिकरण-नामक परम - आलोचनाका स्वरूप वर्तता ही है

[अब इस १११वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ श्लोक कहते हैं : ]

निर्मलगुणाकर कर्म-विरहित अनुभवन जो आत्मका
माध्यस्थ भावोंमें करे, अविकृतिकरण उसे कहा ।।१११।।