[श्लोकार्थ : — ] आत्मा निरंतर द्रव्यकर्म और नोकर्मके समूहसे भिन्न है,
अन्तरंगमें शुद्ध है और शम - दमगुणरूपी कमलोंका राजहंस है (अर्थात् जिसप्रकार राजहंस
कमलोंमें केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणोंमें रमता
है ) । सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्यचमत्कारकी मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोहके
अभावके कारण समस्त परको ( – समस्त परद्रव्यभावोंको) ग्रहण नहीं ही करता ।१६२।
[श्लोकार्थ : — ] जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियोंका समूह है, जिसने सदा विशद -
-विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृतके समुद्रमें पापकलंकको धो डाला है तथा
जिसने इन्द्रियसमूहके कोलाहलको नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा
अंधकारदशाका नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।१६३।
[श्लोकार्थ : — ] संसारके घोर, ❃सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिकसे प्रतिदिन परितप्त
(मंदाक्रांता)
आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशे-
रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः ।
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ।।१६२।।
(मंदाक्रांता)
अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणः शुद्धभावामृताम्भो-
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः ।
शुद्धात्मा यः प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा
ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ।।१६३।।
(वसंततिलका)
संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै-
र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने ।
लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं
यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ।।१६४।।
❃ सहज = साथमें उत्पन्न अर्थात् स्वाभाविक । [निरंतर वर्तता हुआ आकुलतारूपी दुःख तो संसारमें स्वाभाविक
ही है, अर्थात् संसार स्वभावसे ही दुःखमय है । तदुपरान्त तीव्र असाता आदिका आश्रय करनेवाले घोर
दुःखोंसे भी संसार भरा है ।]
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नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-