निखिलनयविलासो न स्फु रत्येव किंचित् ।
तमहमभिनमामि स्तौमि संभावयामि ।।१९२।।
[श्लोकार्थ : — ] जो अनवरतरूपसे ( – निरन्तर) अखण्ड अद्वैत चैतन्यके कारण निर्विकार है उसमें ( – उस परमात्मपदार्थमें) समस्त नयविलास किंचित् स्फु रित ही नहीं होता । जिसमेंसे समस्त भेदवाद ( – नयादि विकल्प) दूर हुए हैं उसे ( – उस परमात्म- पदार्थको) मैं नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ ।१९२।
[श्लोकार्थ : — ] यह ध्यान है, यह ध्येय है, यह ध्याता है और वह फल है — ऐसे विकल्पजालोंसे जो मुक्त ( – रहित) है उसे ( – उस परमात्मतत्त्वको) मैं नमन करता हूँ ।१९३।
[श्लोकार्थ : — ] जिस योगपरायणमें कदाचित् भेदवाद उत्पन्न होते हैं (अर्थात् जिस योगनिष्ठ योगीको कभी विकल्प उठते हैं ), उसकी अर्हत्के मतमें मुक्ति होगी या नहीं होगी वह कौन जानता है ? १९४।