Niyamsar (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


Page 242 of 388
PDF/HTML Page 269 of 415

 

२४२ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-

यः परमतत्त्वज्ञानी महातपोधनो दैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चय- प्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मकशुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता- प्रशस्तसमस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, न केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां निवारणं च करोति, पुनरनवरतमखंडाद्वैतसुन्दरानन्द- निष्यन्द्यनुपमनिरंजननिजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्चयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति

(हरिणी)
वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फु टम्
परमयमिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं
भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम्
।।१९१।।

जो परमतत्त्वज्ञानी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्मकर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ निश्चयप्रायश्चित्तमें परायण रहता हुआ मनवचनकायाको नियमित (संयमित) किये होनेसे भवरूपी बेलके मूल - कंदात्मक शुभाशुभस्वरूप प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त वचनरचनाका निवारण करता है, केवल उस वचनरचनाका ही तिरस्कार नहीं करता किन्तु समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका निवारण करता है, और अनवरतरूपसे (निरन्तर) अखण्ड, अद्वैत, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर आनन्दझरते), अनुपम, निरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्वकी सदा शुद्धोपयोगके बलसे सम्भावना (सम्यक् भावना) करता है, उसे (उस महातपोधनको) नियमसे शुद्धनिश्चयनियम है ऐसा भगवान सूत्रकारका अभिप्राय है

[अब इस १२०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ]

[श्लोकार्थ : ] जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचनरचनाको छोड़कर सदा स्फु टरूपसे सहजपरमात्माको सम्यक् प्रकारसे भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमीको मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण ऐसा यह शुद्ध नियम नियमसे (अवश्य) है १९१