यः परमतत्त्वज्ञानी महातपोधनो दैनं संचितसूक्ष्मकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चय- प्रायश्चित्तपरायणो नियमितमनोवाक्कायत्वाद्भववल्लीमूलकंदात्मकशुभाशुभस्वरूपप्रशस्ता- प्रशस्तसमस्तवचनरचनानां निवारणं करोति, न केवलमासां तिरस्कारं करोति किन्तु निखिलमोहरागद्वेषादिपरभावानां निवारणं च करोति, पुनरनवरतमखंडाद्वैतसुन्दरानन्द- निष्यन्द्यनुपमनिरंजननिजकारणपरमात्मतत्त्वं नित्यं शुद्धोपयोगबलेन संभावयति, तस्य नियमेन शुद्धनिश्चयनियमो भवतीत्यभिप्रायो भगवतां सूत्रकृतामिति
सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फु टम् ।
भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् ।।१९१।।
जो परमतत्त्वज्ञानी महातपोधन सदा संचित सूक्ष्मकर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ निश्चयप्रायश्चित्तमें परायण रहता हुआ मन – वचन – कायाको नियमित (संयमित) किये होनेसे भवरूपी बेलके मूल - कंदात्मक शुभाशुभस्वरूप प्रशस्त - अप्रशस्त समस्त वचनरचनाका निवारण करता है, केवल उस वचनरचनाका ही तिरस्कार नहीं करता किन्तु समस्त मोहरागद्वेषादि परभावोंका निवारण करता है, और अनवरतरूपसे ( – निरन्तर) अखण्ड, अद्वैत, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर आनन्द – झरते), अनुपम, निरंजन निजकारणपरमात्मतत्त्वकी सदा शुद्धोपयोगके बलसे सम्भावना (सम्यक् भावना) करता है, उसे (उस महातपोधनको) नियमसे शुद्धनिश्चयनियम है ऐसा भगवान सूत्रकारका अभिप्राय है ।
[अब इस १२०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज चार श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो भव्य शुभाशुभस्वरूप वचनरचनाको छोड़कर सदा स्फु टरूपसे सहजपरमात्माको सम्यक् प्रकारसे भाता है, उस ज्ञानात्मक परम यमीको मुक्तिरूपी स्त्रीके सुखका कारण ऐसा यह शुद्ध नियम नियमसे ( – अवश्य) है ।१९१।