[श्लोकार्थ : — ] जिसने नित्य ज्योति द्वारा तिमिरपुंजका नाश किया है, जो आदि –
अंत रहित है, जो परम कला सहित है तथा जो आनन्दमूर्ति है — ऐसे एक शुद्ध आत्माको
जो जीव शुद्ध आत्मामें अविचल १मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है, सो यह २आचारराशि
जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है ।१९०।
गाथा : १२० अन्वयार्थ : — [शुभाशुभवचनरचनानाम् ] शुभाशुभ वचन-
रचनाका और [रागादिभाववारणम् ] रागादिभावोंका निवारण [कृत्वा ] करके [यः ] जो
[आत्मानम् ] आत्माको [ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य तु ] उसे [नियमात् ] नियमसे
( – निश्चितरूपसे) [नियमः भवेत् ] नियम है
।
टीका : — यह, शुद्धनिश्चयनियमके स्वरूपका कथन है ।
(मंदाक्रांता)
यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं
नित्यज्योतिःप्रतिहततमःपुंजमाद्यन्तशून्यम् ।
ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूर्तिं
जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः ।।१९०।।
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा ।
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु णियमं हवे णियमा ।।१२०।।
शुभाशुभवचनरचनानां रागादिभाववारणं कृत्वा ।
आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु नियमो भवेन्नियमात् ।।१२०।।
शुद्धनिश्चयनियमस्वरूपाख्यानमेतत् ।
१ – मन = भाव ।
२ – आचारराशि = चारित्रपुंज; चारित्रसमूहरूप ।
शुभ-अशुभ रचना वचनकी, परित्याग कर रागादिका ।
उसको नियमसे है नियम जो ध्यान करता आत्मका ।।१२०।।
कहानजैनशास्त्रमाला ]शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार[ २४१