Niyamsar (Hindi).

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समस्त परद्रव्योंके परित्यागरूप लक्षणसे लक्षित अखण्ड - नित्यनिरावरण -
सहजपरमपारिणामिकभावकी भावनासे औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा
क्षायोपशमिक इन चार भावांतरोंका
परिहार करनेमें अति - आसन्नभव्य जीव समर्थ है,
इसीलिये उस जीवको पापाटवीपावक (पापरूपी अटवीको जलानेवाली अग्नि) कहा
है; ऐसा होनेसे पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना
आदि सब ध्यान ही है (अर्थात् परमपारिणामिक भावकी भावनारूप जो ध्यान वही
महाव्रत-प्रायश्चित्तादि सब कुछ है )
[अब इस ११९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्णनित्यनिरावरणसहजपरमपारिणामिकभाव -
भावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं
कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात
्, तत एव पापाटवीपावक इत्युक्त म् अतः पंच-
महाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति
यहाँ चार भावोंके परिहारमें क्षायिकभावरूप शुद्ध पर्यायका भी परिहार (त्याग) करना कहा है उसका
कारण इसप्रकार है : शुद्धात्मद्रव्यका हीसामान्यका हीआलम्बन लेनेसे क्षायिकभावरूप शुद्ध
पर्याय प्रगट होती है क्षायिकभावकाशुद्धपर्यायका विशेषकाआलम्बन करनेसे क्षायिकभावरूप
शुद्ध पर्याय कभी प्रगट नहीं होती इसलिये क्षायिकभावका भी आलम्बन त्याज्य है यह जो
क्षायिकभावके आलम्बनका त्याग उसे यहाँ क्षायिकभावका त्याग कहा गया है
यहाँ ऐसा उपदेश दिया है किपरद्रव्योंका और परभावोंका आलम्बन तो दूर रहो, मोक्षार्थीको
अपने औदयिकभावोंका (समस्त शुभाशुभभावादिकका), औपशमिकभावोंका (जिसमें कीचड़ नीचे
बैठ गया हो ऐसे जलके समान औपशमिक सम्यक्त्वादिका), क्षायोपशमिकभावोंका (अपूर्ण ज्ञान
दर्शनचारित्रादि पर्यायोंका) तथा क्षायिकभावोंका (क्षायिक सम्यक्त्वादि सर्वथा शुद्ध पर्यायोंका) भी
आलम्बन छोड़ना चाहिये; मात्र परमपारिणामिकभावकाशुद्धात्मद्रव्यसामान्यकाआलम्बन लेना
चाहिये उसका आलम्बन लेनेवाला भाव ही महाव्रत, समिति, गुप्ति, प्रतिक्रमण, आलोचना,
प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त आदि सब कुछ है (आत्मस्वरूपका आलम्बन, आत्मस्वरूपका आश्रय,
आत्मस्वरूपके प्रति सम्मुखता, आत्मस्वरूपके प्रति झुकाव, आत्मस्वरूपका ध्यान,
परमपारिणामिकभावकी भावना, ‘मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ’ ऐसी परिणति
इन सबका एक
अर्थ है )
२४० ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-