प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् ।
ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ।।१८९।।
[अब इस ११८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जो (तप) अनादि संसारसे समृद्ध हुई कर्मोंकी महा अटवीको जला देनेके लिये अग्निकी ज्वालाके समूह समान है, शमसुखमय है और मोक्षलक्ष्मीके लिये भेंट है, उस चिदानन्दरूपी अमृतसे भरे हुए तपको संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं, परन्तु अन्य किसी कार्यको नहीं ।१८९।
गाथा : ११९ अन्वयार्थ : — [आत्मस्वरूपालम्बनभावेन तु ] आत्मस्वरूप जिसका आलम्बन है ऐसे भावसे [जीवः ] जीव [सर्वभावपरिहारं ] सर्वभावोंका परिहार [कर्तुम् शक्नोति ] कर सकता है, [तस्मात् ] इसलिये [ध्यानम् ] ध्यान वह [सर्वम् भवेत् ] सर्वस्व है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), निज आत्मा जिसका आश्रय है ऐसा निश्चयधर्मध्यान ही सर्व भावोंका अभाव करनेमें समर्थ है ऐसा कहा है ।