मूल है ) और जिसने संसारवृक्षके मूलका विनाश किया है — ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं
नित्य नमन करता हूँ । १८८ ।
गाथा : ११८ अन्वयार्थ : — [अनन्तानन्तभवेन ] अनन्तानन्त भवों द्वारा
[समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ] उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि [तपश्चरणेन ] तपश्चरणसे
[विनश्यति ] नष्ट होती है; [तस्मात् ] इसलिये [तपः ] तप [प्रायश्चितम् ] प्रायश्चित्त है ।
टीका : — यहाँ (इस गाथामें), प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्वमें सदा अन्तर्मुख
रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें लीन रहकर प्रतपना —
प्रतापवन्त वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है ) ऐसा कहा है ।
अनादि संसारसे ही उपार्जित द्रव्यभावात्मक शुभाशुभ कर्मोंका समूह — कि जो पाँच
प्रकारके ( – पाँच परावर्तनरूप) संसारका संवर्धन करनेमें समर्थ है वह — भावशुद्धिलक्षण
(भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परमतपश्चरणसे विलयको प्राप्त होता है; इसलिये
स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ ( – निज आत्माके आचरणमें लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है
ऐसा कहा गया है ।
णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो ।
तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा ।।११८।।
अनन्तानन्तभवेन समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ।
तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात् ।।११८।।
अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं
भवतीत्युक्त म् ।
आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्धनसमर्थः
परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति, ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव
शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् ।
२३८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
अर्जित अनन्तानन्त भवके जो शुभाशुभ कर्म हैं ।
तपसे विनश जाते सुतप अतएव प्रायश्चित्त है ।।११८।।