Niyamsar (Hindi). Gatha: 118.

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२३८ ]
नियमसार
[ भगवानश्रीकुंदकुंद-
णंताणंतभवेण समज्जियसुहअसुहकम्मसंदोहो
तवचरणेण विणस्सदि पायच्छित्तं तवं तम्हा ।।११८।।
अनन्तानन्तभवेन समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः
तपश्चरणेन विनश्यति प्रायश्चित्तं तपस्तस्मात।।११८।।

अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तं भवतीत्युक्त म्

आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्धनसमर्थः परमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति, ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् मूल है ) और जिसने संसारवृक्षके मूलका विनाश किया हैऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं नित्य नमन करता हूँ १८८

गाथा : ११८ अन्वयार्थ :[अनन्तानन्तभवेन ] अनन्तानन्त भवों द्वारा [समर्जितशुभाशुभकर्मसंदोहः ] उपार्जित शुभाशुभ कर्मराशि [तपश्चरणेन ] तपश्चरणसे [विनश्यति ] नष्ट होती है; [तस्मात् ] इसलिये [तपः ] तप [प्रायश्चितम् ] प्रायश्चित्त है

टीका :यहाँ (इस गाथामें), प्रसिद्ध शुद्धकारणपरमात्मतत्त्वमें सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (अर्थात् शुद्धात्मस्वरूपमें लीन रहकर प्रतपना प्रतापवन्त वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है ) ऐसा कहा है

अनादि संसारसे ही उपार्जित द्रव्यभावात्मक शुभाशुभ कर्मोंका समूहकि जो पाँच प्रकारके (पाँच परावर्तनरूप) संसारका संवर्धन करनेमें समर्थ है वहभावशुद्धिलक्षण (भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परमतपश्चरणसे विलयको प्राप्त होता है; इसलिये स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (निज आत्माके आचरणमें लीन) परमतपश्चरण ही शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्त है ऐसा कहा गया है

अर्जित अनन्तानन्त भवके जो शुभाशुभ कर्म हैं
तपसे विनश जाते सुतप अतएव प्रायश्चित्त है ।।११८।।